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एक कश्ती थी काष्ठ की ,
किनारे तक जो पहुची नहीं |
जल धरा भी जैसे शांत थी ,
तूफ़ान से पहले की शांति थी |
आसमान भी धुंधला था ,
बादलों ने सूरज छुपा लिया था |
नील वर्ण तो था नहीं ,
बैंगनी आभा से वातावरण सराबोर था |
बारिश भी मानो रूठी थी ,
बादलों से जो ना छूट रही थी |
कोई और कश्ती दूर तलक ना दिख रही थी ,
पंछियों की चहचाहट दूर से ही आ रही थी |
वो कश्ती बस हौले हौले तैर रही थी ,
साँसों को मेरी डुबो रही थी |
किनारा ना कोई दिख रहा था ,
बस सफेद क्षितिज सा भ्रम हो रहा था |
अचानक एक बिजली कड़की,
और मेरा खिवैया पानी में तैर दूर ओझल हो गया |
मेरी कश्ती अकेली डगमगाती रही ,
और मैं उस पल को दिल से जीती रही |
तैरना ना आता था मुझको ,
डूबने का डर भी तो था मेरे दिल को |
बादल गरजे पर अभी ना बरसे ,
पिहू पिहू मयूर ध्वनि चहुँ और से झलके |
आँखें बंद करली मैंने ,
और श्री कृष्ण का नाम लिया |
आँखें खोली तो देखा क्या ,
कारे बादल हौले हौले कहीं दूर गगन उड़ चले |
फिर जो डगमगा रही थी कश्ती ,
वो धीरे धीरे स्थिर हो चली |
हाथो में थी चूड़ी ,
पैरो में थी पायल |
साथ कोई था नहीं उसके साजन ,
तन्हा वो भी थी जो थी दूसरी कश्ती में सवार |
मैंने पूछा तनिक रुको ,
इस मौसम से क्या डरती नहीं हो |
वो बोली हंसके ,
तन्हा हूँ पर अकेली नहीं, नाविक हूँ अपनी जन्दगी की |
मैं उसकी आँखों में बस देखती रह गयी ,
और दो बतखें हमारी कश्ती के करीब आ गयी |
फिर वापिस वो बोली हंसके ,
बांधलो इस डोरी को अपनी नैया से कसके |
ले चलती हूँ तुम्हे ,
मेरे कान्हा के किनारे |