जो पल बीत गया ,
क्या वो वक़्त हमारा था ?
जो कल आने को है ,
क्या वो वक़्त हमारा है ?
जो पल बीत गया ,
क्या वो वक़्त हमारा था ?
जो कल आने को है ,
क्या वो वक़्त हमारा है ?
वक़्त भी,
बेवक्त हँसता होगा |
हमे मासूम नादान ,
समझता होगा |
मैं हूँ कहा किसीका ?
फिर भी मैं ही हूँ सबका |
मैं हूँ कहाँ किसीका ,
फिर भी मैं ही तो हूँ सबका |
उस छोर में हूँ खड़ा ,
जिसकी उम्मीद लगाते हो तुम अंधकार में |
उस अंधकार का हूँ मैं धरातल ,
जिसकी कोख में तुम खुद को पाते हो तराश |
उस अग्नि की तड़प में हूँ ,
जो गुरुत्वाकर्षण को भी चीर देती हैं |
एक पल की धूरी को भी मैं ,
सदियों में बदल दूं |
और सदियों को भी ,
एक पल में दर्शा दूं |
हर काल चक्र में मैं हूँ ,
या काल चक्र ही हैं मुझसे?
ये वक़्त की ही तो माया हैं ,
कुछ होकर भी तो कुछ नहीं हो पाया हैं |
इस मोह माया में ही तो तुम्हें उलझा देता हूँ ,
जिसको सुलझाते सुलझाते तुम वक़्त गुज़ार देते हो |
कभी कभी उतने ही खुद में उलझ जाते हो ,
हर वक़्त को ज़ार ज़ार कर देते हो |
आस पास जब दीखता नहीं हैं कोई ,
क्यों बैचैन हो जाते हो उस वक़्त की धार में बहते बहते ?
क्यों घंटो उलझा देते हो फ़ोन में खुद को ?
जब की पता हैं वक़्त चुरा नहीं सकते तुम किसीका |
हर वक़्त में सहारा ढूंढते हो ,
कोई दीवाना इशारा करदे बस यही टटोलते रहते हो |
फ़ोन भी निर्जीव ही तो हैं ,
बिना किसीके देखे ब्लू टिक स्वत: ही होते नहीं हैं |
उस वक़्त के आलम पे,
इंतज़ार न्योछावर करते हो |
और वो वक़्त आने से पहले ,
खुद ही दूर होकर सबको ब्लॉक कर देते हो |
इस फ़ोन से तरंग उठती हैं ,
जो तुमको बैचैन कर देती हैं |
खुद के अंग को,
इससे दूर ले जाओ ना |
एक माया में उलझे हो,
और दुसरे जाल को खुद ही सहेजते हो |
फिर करना ना शिकायत,
की वक़्त ने हरा दिया |
इस इंतज़ार की घड़ी में ,
वक़्त ने बेहरेहमी से रुला दिया |
वक़्त हूँ मैं ,
फ़ोन को दो वक़्त हर वक़्त दिखाके कहता हूँ मैं |
ये तुम्हारे हर वक़्त को खुदका भी वक़्त देगा ,
और हर वक़्त को सुनहरी याद बनके मेहफूस रखेगा |
पर दो वक़्त उस फ़ोन को ,
पर ना देना वक़्त खुदका किसी अनजान को |
जान पहचान बड़ाके ,
साइबर अपराध भी हो जाते हैं |
जिसको देखते हो दिन रात ,
गुस्से में उसको भी जब सुना नहीं सकते चार बात |
पर जो कभी दिखेगा ही नहीं ,
तो क्यों उसके वक़्त में घोल देते हो खुद का वक़्त युही |
दिलचस्प भी होते हैं अनजान ,
पर जो जानके अनजान ना बन जाए फिर से एक बार |
दूर रहो उन डोरियों से ,
मांजा से भी ज्यादा खतरनाक ये मकड़जाल हैं |
दिखती नहीं चमकती हैं ये ,
अंधेरों को भी चकाचौन्द कर देती हैं |
वक़्त तो देखो,
जो दूर हैं इन सबसे |
वो होता भी दूर हैं,
अपने अकेलेपन से |
कर्म करो धन अर्जन करो ,
सोच समझके उसको खर्च करो |
कोई होता नहीं है साथ ,
ना होती हैं किसीसे मन की बात |
चार दोस्त बन पाते नहीं ,
जानवरों के अब घर कहलाते हैं |
कौन जाता हैं अकेले बागान भ्रमण पे ?
देखो तो सही ध्यान से ,
बहुत को कुत्ते की डोर खींच के लेके जाती हैं |
वक़्त अपनों का मिलता नहीं ,
वसीयत पालतू कुत्तों के नाम भी करदी जाती हैं |
अब क्या करे ?
उनको भी पता हैं उनके धन से उनकी सत्ता चलती हैं ,
थोड़ा सा धन लुटादो तो भार्या भी बदलती हैं |
तुम खर्च कर सकते हो धन को ,
पर वक़्त को खरीद सकते नहीं |
हर वक़्त को बस दिल से जीयो,
हर वक़्त को सुनहरी याद बनाते रहो |
कल वक़्त होगा कैसे ?
उसका बीजारोपण आज होने तो दो |
कल कल की उलझन से दूर ,
आज के पल में समर्पण कर तो लो |
हर किसीका वक़्त अलग हैं ,
इच्छाओं को पूरा करने की डगर अलग हैं |
कुछ को मीलों का फासला करना पड़ता हैं तय ,
कुछ को कुछ कदम चलने के बाद ही सुनाई दे जाती हैं जय जय जय |
दो चार कदम हो या हो मीलों का फासला ,
सबका वक़्त होता हैं खुद में ही ख़ुफ़िया सा |
आधा वक़्त खो दिया ,
दूसरों की अपेक्षा को सुनते सुनते |
आधा वक़्त खो दिया ,
कोई तुमसा क्यों नहीं ये सोचते सोचते |
वक़्त खो दिया वक़्त खो दिया ,
और कहते हो वक़्त ने तुमपे ज़ुल्म क्यों किया ?
मैं वक़्त हूँ हर वक़्त हूँ ,
बेवक्त भी मैं ही दिलचस्प हूँ |
ज्ञान की तरंग को छूपाते नहीं हो ,
घड़ियों की सुईयों में अटके रहते हो |
मैं वक़्त हूँ चलता रहूँगा ,
बंद घड़ियों की सुईयों से भी तुमको भटकाता रहूँगा |
दशहरा से दिवाली आ गयी ,
और अयोध्या को एक जगमगाती रात से सजादी |
वक़्त का खेल तो देखो ,
कान्हा को बांधकर भी रस्सी से |
रोक ना पाओगे ,
गोकुल की गलियों में माखन चोरी से |
ये समाज भी वो रस्सी हैं ,
जो तुम्हारे वक़्त की उड़ान को जकड़े रहती हैं |
खुद ही खुद में उलझे हो ,
समाझ क्या कहेगा यही सोचते हो |
हर कोई कुछ ख़ास करे नहीं ,
इसीलिए व्यापारिक दावपेंच सबको सीखाया नहीं |
ये वक़्त की धारा हैं ,
सबका वक़्त सुनहरा ज़रूर आता हैं |
करो वो जो मन चाहे ,
पर करो मनन बिन धन अर्जन के कहाँ तक वो ले जाए ?
धन आता हैं तो जाता भी हैं ,
पर तुम्हें सुकून का वक़्त संभला जाता हैं |
धन का वक़्त तो चंचल होता हैं ,
एक वक़्त में भी वो एक का होता नहीं हैं |
कभी यहाँ खनकता हैं तो कभी वहाँ खनकता हैं ,
पर ये वक़्त का खेल हैं ,
हर किसी पे धन वक़्त के हिसाब से बरसता हैं |
मेहनत करो और वक़्त का होलो ,
खुशियाँ बिखेरों और वक़्त को ना कोसो |
कोसो दूर से उड़के आएगा ,
और वक़्त एक दिन तुम्हारा हो ही जाएगा |
वक़्त की ही तो तलाश हैं ,
आत्मा शरीर का कैलाश हैं |