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हमारे जीवन में प्रारब्ध का अपना स्थान है परंतु प्रारब्ध से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है हमारी प्रतिक्रिया और वैचारिक समन्वयन हमें यू ही यदा कदा ये महसूस होता है कि किसी बात पर या किसी कारणवश हम दुःखी हैं, परंतु क्या वास्तव में ऐसा है? 

दरअसल हमने अपने ग़मों को खुशियों की अपेक्षा अधिक तवज्जो दी है, ऐसा कभी नहीं होगा कि हम एक पूरा दिन यदि तनावग्रस्त या चिंतित हैं तो सोंचे की शाम को खूब ठहाके लगाएंगे लेकिन यदि हम किसी दिन पूरे समय खुश रहते हैं तो अमूमन ही ये सोचकर निराश हो उठते हैं कि आज शाम अच्छी नहीं जाएगी क्यूंकि दिनभर हस लिए अब शाम को रोना पड़ेगा। हमने खुद को निराशावादी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है वस्तुतः होता भी यही है कि हम दुःखी रहने के आदी हो जाते हैं। सुनिए ये दुःख बहुत ऊंची नाक वाले होते हैं इन्हें तवज्जो देना बंद कर देंगे तो ये आपके यहां मेहमान बन आना भी बंद कर देंगे। बाकी बातें इस कविता के माध्यम से समझिए...

किस बात का दुःख है तुम्हें
थोड़ा वक़्त बीत जाने दो
ये उलझन और विरह वेदनाओं
के गहरे समंदर का खारा पानी
इक दिन सूख जाएगा और
हो जाएगा सब कुछ शून्य 

किस बात का दुःख है तुम्हें
थोड़ा और वक़्त बीत जाने दो
तुम खुद भूल बैठोगे सब कुछ
और वो भुला चुके होंगे तुम्हें
ये सृष्टि मिटा देगी अस्तित्व तुम्हारा
तुम भौतिक शून्य हो जाओगे
अपनी आँखों से देखोगे मिटता खुदको
कुछ नहीं कर पाओगे और हो
पाओगे उस सत्य से परिचित की
मिट्टी का बर्तन है जल जाएगा
राख कहाँ तक बचा पाओगे 

किस बात का दुःख है तुम्हें
तुम रहोगे यहीं कहीं
शून्य में विलीन होती देह के इतर
देखोगे खुद को अग्नि में समाहित
और कुछ को बिलखते देखोगे
कुछ को बेज़ान मरणासन्न तो
कुछ को खुश भी देखोगे
देखोगे अपने सपनों का जलना
देखोगे अपने पास रखी वस्तुओं
को छुने में अपनी असमर्थता
इसी जीवन को जिसमें दुःखी
दिखाई पड़ते हो तुम उसी का अंत देखोगे 

किस बात का दुःख है तुम्हें
बस थोड़ा वक़्त बीत जाने दो...
तुम समझोगे जीवन - मृत्यु के
कालचक्र का संचालन और यथार्थता
और आखिर में
अपनी जीवंत आत्मा की मुक्ति देखोगे
बस थोड़ा वक़्त बीत जाने दो...

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