हमारे जीवन में प्रारब्ध का अपना स्थान है परंतु प्रारब्ध से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है हमारी प्रतिक्रिया और वैचारिक समन्वयन हमें यू ही यदा कदा ये महसूस होता है कि किसी बात पर या किसी कारणवश हम दुःखी हैं, परंतु क्या वास्तव में ऐसा है?
दरअसल हमने अपने ग़मों को खुशियों की अपेक्षा अधिक तवज्जो दी है, ऐसा कभी नहीं होगा कि हम एक पूरा दिन यदि तनावग्रस्त या चिंतित हैं तो सोंचे की शाम को खूब ठहाके लगाएंगे लेकिन यदि हम किसी दिन पूरे समय खुश रहते हैं तो अमूमन ही ये सोचकर निराश हो उठते हैं कि आज शाम अच्छी नहीं जाएगी क्यूंकि दिनभर हस लिए अब शाम को रोना पड़ेगा। हमने खुद को निराशावादी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है वस्तुतः होता भी यही है कि हम दुःखी रहने के आदी हो जाते हैं। सुनिए ये दुःख बहुत ऊंची नाक वाले होते हैं इन्हें तवज्जो देना बंद कर देंगे तो ये आपके यहां मेहमान बन आना भी बंद कर देंगे। बाकी बातें इस कविता के माध्यम से समझिए...
किस बात का दुःख है तुम्हें
थोड़ा वक़्त बीत जाने दो
ये उलझन और विरह वेदनाओं
के गहरे समंदर का खारा पानी
इक दिन सूख जाएगा और
हो जाएगा सब कुछ शून्य