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कहां चल कर जाना हैं दूर सबसे
मैं देखती हूँ तुम्हारा रास्ता कब से।
जब भी कहते हो इश्क़ करते हो
मैं हर बार पूछ बैठती हूँ कब से ?
ये शाम तक रही है राहें जिनकी
आयेंगे कहकर, नहीं आए कबसे ।
कहते मेरी जां तुम भोली बहुत हो
इतना यकीं, वो भी इन्सां पर कबसे ?
उलझन और दरारें खीसे से गिरती नहीं
इतने जतन से सम्भाला है इन्हें कबसे ?
ये तुम
हो ! जो रो रहे हो, नसीब पर अपने
और वहाँ किसी ने निवाला नहीं चखा कबसे
मोहब्बत मोहब्बत करते बीमार पड़ गए,
रूहें निकल कर चीख़ रही कबसे ।
नहीं आया सामना करना तुम्हारे हिस्से,
जिन मुश्किल हालातों से वो गुज़र रहे कबसे ।
ग़रीबी का तमाचा मोहब्बत से भारी है,
इस बात का इल्म नहीं हो पाया कबसे ।
तुम यहाँ रो रहे रकीब की याद में,
वहाँ कोई ठंड से मर चुका कबसे