जब कोई मुझसे पूछता है, मैं सोच में पड़ जाती हूँ, अपने अतीत और वर्तमान के पहलुओं पर, गौर करते हुए कहती हूँ कि – “हाँ, जानती हूँ मोहब्बत, उसके हसीं पल, इक दूजे में खोए रहना, वो वक़्त का थम जाना, बिना कहे सब समझ लेना, नोंक झोंक, ईर्ष्या, उसके दर्द, उनकी पीड़ा, दिलों का जुड़ना, बेवफ़ा होना और उस बेवफ़ाई के डर से गलतियाँ करना, अपनी मोहब्बत को तार-तार कर देना एक झूठ से, और बिखेर कर रख देना उस महीन शहद में डूबे लम्हें को जिस लम्हे का हमने, सदियों इन्तेज़ार किया है, सब जानती हूँ मैं। कहते हैं, लोग प्यार में झूठ नहीं कहते, जनाब! झूठ कहते हैं वो, जो कहते हैं हम प्यार में झूठ नहीं कहते। कहानी थोड़ी लंबी है और शायद वाक्या थोड़ा पुराना लेकिन सोचती हूँ, शब्दों में बयां करना, कहने से ज्यादा आसान होगा शायद... तो शुरू करते हैं...
सुनो! तुम्हें कुछ बातें बता के चली जाना चाहती हूँ के अब जब उसके हो गए हो तुम तो हर पल हर लहजे देखना उसके उसे पढ़ते रहने की साजिश करना जैसे कभी पढ़ा था मेरे ज़ज्बातों को तुमने उनसे बेहतर उसे समझने की कोशिश करना
पढ़ना उसका ढलना शामों की तरह
और सूरज की तरह उग आना हर सुबह
पढ़ना उसका समेटना खुदको और
तुम्हारी आड़ में छुपाना खुदको
पढ़ना की कैसे सुलझाती है अपने गेसुओं को
और लताओं की तरह बलखाना उसका
पढ़ना श्रंगार में डूबा रूप यौवन
और वो गले का हार उसका
पढ़ना की कैसे लजाती है तुम्हें देख नज़रे झुका कर और फिर