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हमने प्रेम किया अटूट असीम प्रेम और
उसने इंतज़ार किया इक लम्बे अर्से से
अब उसका इन्तज़ार खत्म हो रहा है..
और हमारा प्रेम से परिपूर्ण रिश्ता भी
वार्तालाप की जगह चुप्पियों ने ली है
और इज़हार की जगह शिकायतों ने
हाँ झगड़े अब भी होते हैं हमारे तब
लगता है कुछ बाकी है जिसे बचा लेने की
जद्दोजहद ने हमें अब भी जोड़े रखा है
अब दुःख साझा नहीं होते हमारे
बस समझ लिए जाते हैं या फिर

इक दूसरे को समझा दिया जाता है

कभी कभी समझने और समझाने की
क्षमता समाप्त होती हुई प्रतीत होती है
अपने हक्क में कर सकने वाले सवालों
के जवाब में झगड़े और नाराजगी से परेशां
मैंने शिकायतों की जुबान पर ताला जड़ दिया है
पर वो बिना कुछ कहे ही सब शिकायतें सुनकर
नाराजगी व्यक्त कर ही देते हैं,
अच्छा है रिश्ता भले ही बंट रहा है पर कमज़ोर नहीं हुआ
बस कुछ सवाल हैं जिनके ज़वाब शायद
हतप्रभ कर देने वाले होंगे सोचकर पूछती नहीं
मुझे दुःख की अनुभूति ना हो इस कारणवश
वो मुझे वे बातें जो बड़ी करीने से छुपाई है बताते नहीं
वो मुझे दुःख से बचाने की कोशिश में हैं
मैं उन्हे अत्यधिक परेशान ना कर देने की पशोपेश में
सबसे सुखद यह है कि जो बातें वे जानते हैं कि
जरूरी हैं वे बता देते हैं भले ही दुःख हो
उनकी इन्हीं बातों से मैं उनके और समीप हो आती हूँ
और फिर विरह का दंश मेरी खुशियों को मार देता है। 

प्रेम को इतना जटिल नहीं होना चाहिए बिल्कुल नहीं
प्रेम होना चाहिए सरल इतना की मानो
दो के पहाड़े जैसा हो दो में दो जोड़ों तो चार
दो में दो गुणाकार भी चार, है ना
परंतु प्रेम मार्गी होने के कारण भक्ति
और उस सुन्दरी के एक अर्से तक किए गए
इन्तेज़ार को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता
भाई अब यहां पक्षपात की बात नहीं है यदि
प्रेयसी और अर्धांगिनी एक ही स्त्री है तब तो ठीक है
परंतु प्रेयसी से प्रेम विवाह ना हो पाने की स्तिथि में प्रेमिका कितनी ही गुणवती क्यूँ ना हो
प्रथम स्थान अर्धांगिनी को ही दिया जाता है ना 
जानते हैं क्यूँ? क्यूंकि प्रेमिका समा लेती है
प्रेम स्वयं के भीतर और बनाती है महल सपनों का
उसमे प्रेम, विरह, अश्रु, सद्भाव, चिंता, स्मरण सब शामिल होता है परंतु होता तो सपनों का महल ही है ना और अर्धांगिनी रचती है संसार सारी उम्र का
करती है तपस्या भक्त की भांति तकती है आस
प्रभु के सानिध्य की और करती है संचालन अपने वैवाहिक जीवन की ओर अग्रसर अपने कदमों का 

प्रेमिका सुख दुःख प्रेम अश्रु निभा जाए तो भी
अर्धांगिनी के धर्मों के निर्वाहन का अधिकार
प्रेमिका के हिस्से नहीं आने पाता.. परंतु प्रेम
भक्ति के आगे नत-मस्तक हो धर्ममार्ग को प्रशस्त
करने में अपना योगदान अवश्य देता है।
यहां दोनों ही स्थितियों में ना प्रेम कम है ना भक्ति परंतु जहां प्रेमभावना से बात ना बने वहाँ भक्ति मार्ग प्रशस्त करती है।

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