सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव पर मुफ्त घोषणा करने वालों का नामांकन रद्द करने की बात चुनाव आयोग को कह अभी तक के इतिहास में नया पन्ना लिखा है। जहां एक ओर मुफ्त के वादे कर चुनाव में फायदा मिल रहा वहीं दूसरी ओर जनता के वोटों का गलत उपयोग हो रहा है तथा जनता के अधिकारों की अनदेखी की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को मुफ्त घोषणा करने वाले पर पीआईएल (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) दायर कर नामांकन रद्द करने को कहा है। चुनाव आयोग इलेक्शन सिम्बल रिजर्वेशन एण्ड अलोटमेण्ट आर्डर 1968 के तहत मुफ्त घोषणाएं करने वाले का नामांकन रद्द कर सकती है। जिसमें सार्वजनिक निधि को सार्वजनिक प्रयोजनों के स्थान पर नीजि सुविधाओं तथा वस्तुओं पर खर्च करने का आरोप सिद्ध होता है। चुनावी मुफ्त घोषणाएं कई भारतीय संविधान के अनुच्छेदों का उल्लंघन करती है जिसमें अनुच्छेद 14 के कानून के समक्ष समानता, अनुच्छेद 162 के राज्य की कार्यकारिणी शक्तियां, अनुच्छेद 266(3) के संचित निधि से खर्च, अनुच्छेद 282 विवेकाधीन अनुदान आदि का उल्लंघन किया जाता है और चुनावी मुफ्त घोषणा करने वाले व्यक्ति पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकेंगे।

सुप्रीम कोर्ट का यह कदम स्वयं में ही एक प्रगतिशील विचाारधारा को दर्शाता है। मुफ्त की घोषणाएं राजनीतिक हितों तथा चुनावी परिणामों को प्रभावित करने तथा जनता को लुभाने भर मात्र का साधन है। यह जनता के हित में नहीं है, क्योंकि मुफ्त घोषणाओं को धरातलीय रूप में ढ़ालने पर किया जाने वाला खर्च सावर्जनिक कोष से होता है जिसमें देश के नागरिकों द्वारा प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से दिये गये कर जमा होकर कोष बनता है। सार्वजनिक कोष की राशि नागरिक हितों में ही खर्च होती है, जोकि इन मुफ्त घोषणाओं के बाद मुलभूत आवश्यकताओं पर न होकर मुफ्त की अन्य सुविधाओं को देने पर खर्च होती है।

चुनावी मुफ्त घोषणाओं ने जनता के हितों को ही ताक में नहीं रखा है बल्कि जनता को पंगु बनाने का कार्य भी किया है। जहां व्यक्ति को बिना मेहनत कर मुफ्त में सुविधाएं तथा वस्तुएं प्राप्त हो जाती हैं, जिससे वह इन प्रकार की घोषणाओं में आश्रित हो जाता है तथा गरीबी उन्मूलन में सहायता न कर गरीबी में बने रहने में मद्द करती है। वहीं दूसरी ओर मुफ्त के वादों से बैंकों में भार बढ़ रहा है जिस कारण एनपीए बढ़ रहें हैं और बैंकें दिवालिया होने की कगार में पहुंच रही हैं तथा कई बैंको को बंद करना भी पड़ रहा है।

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मुफ्त घोषणाओं के स्थान पर रोजगार देने की बात होनी चाहिए, जिसमें देश के अधिक से अधिक व्यक्ति रोजगार युक्त हो सकें। जिससे व्यक्ति स्वाबलंबी बनेगा तथा आर्थिक रूप से सशक्त होगा, अतः अपना जीवन निर्वाह अच्छे से करेगा, स्वयं अपनी सुविधाओं का खर्च वहन करने योग्य होगा तथा मुफ्त की सुविधाओं पर आश्रित नहीं रहेगा। इससे समाज में सुधार होगा गरीबी उन्मूलन में सहायता मिलेगी, अपराधों में कमी आयेगी, समाज में शिक्षा का प्रसार बढ़ेगा, समाज में जागरूकता बढ़ेगी तथा समाज नई तकनीकी के साथ कदम से कदम मिलाने के लिए तैयार होगा।

किसानों का लोन माफ करना वर्तमान समय की सबसे प्रचलित घोषणाओं में से है, जिसे सर्वप्रथम मोहम्मद बिन तुगलक के द्वारा अस्तित्व में लाया गया था। तथा वर्तमान में 2002 में कर्नाटक के तात्कालिक मुख्यमंत्री एस. एम. कृष्णा द्वारा चुनाव के दौरान किसानों का लोन माफ करने की घोषणा की गयी थी। उसके पश्चात् यह सिलसिला शुरू हो गया जो आज की सबसे प्रचलित घोषणा बन कर सामने आती है। किसानों के लोन माफ करने के स्थान पर फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्यों को बढ़ाना, उच्च गुणवत्ता वाले बीजों को किसानों को मुफ्त मुहैया कराया जाये, उर्वरकों तथा सिचांई साधनों की उपलब्धता को किसानों तक पहुंचाई जाए तथा सड़क-मार्गों को, परिवहन व्यवस्था को सुगम बनानें से वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ेगी तथा किसान को स्वतः लाभ पहुंचना प्रारम्भ होगा व फसल उत्पादन में भी लाभ देखने को मिलेगा।

चुनावी मुफ्त घोषणाओं के स्थान पर देश और समाज कल्याण में किये जाने वाले वादों को स्थान मिलना चाहिए जिससे देश विकास की ओर कदम बढ़ाता नजर आयेगा और एक विकसित देश बनने की दौड़ में शामिल होगा।

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