क्या मुझे रक्तरत्राव को कहना चाहिए छिप जाओ अन्यथा मुझे अपवित्रता की दहलीज़ों से गुजरना होगा जहां मेरा प्रतिबिंब भी हर पन्ने पर लाल शब्द उकेरेगा।
क्या महावारी अपवित्र है? भारतीय संस्कृति केवल मिथ्याओ के तले दबी है जो संस्कृति अपने महानतम होने का प्रमाण बार-बार देती आई है वो मुझे प्रमाणित नहीं लगती। सीता सती और द्रोपदी वैश्या है और क्यों कृष्ण कुचिल नहीं। मेरा स्वाभिमान मुझे बार-बार पुछता है। धैर्य केवला स्त्री के लिए ही क्यूं।
''मै भी रातो में उडना चाहती हूं छिप कर नहीं खुल कर घौंसले बनाना चाहती हूं। कहते हैं स्त्री की पहचान बुरे वक्त में होती है जहां वक्त ही स्त्रीको वस्त्रहीन कर दे वो द्रोपदी अपनी पहचान क्या दे? हजारों सवाल मेरे मन में खटकते हैं दिन-रात, मैं यही सोचती हूॅं आज भी मेरा प्रतिबिंब मेरा नहीं है।
ये सारे सवाल ही मेरे देश का सच है - दर्पण है मेरी सभ्यता का कि स्त्री कहाॅं खडी है आज उसका स्थान क्या है?। भंवरे फूलो पर मंडराते अच्छे लगते हैं स्त्री पर नहीं। मेरे शब्द कोमल नहीं परंतु काली दिवारो से घिरी वैश्याओ के मान के है। मै सुरझित नहीं हूॅं इन कांटों की मिनारो मे जहाॅं सत्य और तथ्य नहीं मिथ्या वास करती है। यहाॅं खाली सडके मुझे झुरमुट सी नजर आती है और उनसे झाकती नजरे मजबूर कर देती हैं मुझे चार मिनार में, बीच दिवारो में सिमटकर किसी का प्रेम चिन्ह बनकर रह जाने पर। मैं नही जानती की ये सवाल अपने जबाबो को पा पाएगे या नहीं परंतु मजबूर कर देंगे मेरी पायल को प्रेम में बदलने को, चूडी को स्वाभिमान मे और लाली को शान मे बदलने को।।