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हारना एक स्वाभाविक बात है जीतता तो कोई एक ही है

परन्तु हार मान लेना गलत है, क्योंकि जब हमारा मन हार मान लेता है तो उसमे एक ठहराव और अवसाद आ जाता है जो उसे प्रयास नहीं करने देता और जब प्रयास समाप्त हो जाते हैं तो जीत के अवसर स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं और ठहराव अगर उचित स्थान पर ना हो तो वो मन में अवरोध उत्पन्न करता है।

इस लिए अगर आपने अपनी मंजिल की ओर जाने वाले कदमों को रोक लिया तो मंजिल कभी नहीं मिलेगी।

पहली बार में जीत ना मिले ये सम्भव है और कोई बड़ी बात नहीं है परन्तु पहली हार दूसरे प्रयत्न को करने के लिए अनुभव अवश्य देती है अपनी हार को एक प्रेरक के रूप में लें।

वैसे भी हार के बाद मिली जीत का स्वाद पहले प्रयत्न में मिली जीत के स्वाद से दुगुना होता है । अगर हम चाहें तो अपनी हार को सबक समझ कर दुगने उत्साह से आगे बढ़ सकते हैं परन्तु कहीं हम हार मान कर बैठ गए तो ना आगे बढ़ेंगे ना कुछ अधिक सीख पाएंगे ना मंजिल ही पाएंगे।

बस ध्यान यही रखना है हमारे प्रयास सही दिशा में हों

अपनी भूल से सीखना है परन्तु रुकना नहीं है

महान से महान व्यक्ति को पहले प्रयत्न में ही जीत का स्वाद नहीं मिला अगर उन्हें कोई मुकाम मिला तो वो उनके निरन्तर प्रयास का ही अंजाम है

इतिहास वही रचते हैं जो डटे रहते हैं जो थम जाते हैं वो वहीँ रह जाते हैं जहां वो थे।

इसी तथ्य पर लिखी अपनी ही ये कविता यहां प्रेषित कर रही हूँ:-

नित कर्म कर, नित कर्म कर,
होना है अगर तुझको "सफ़ल",
विश्वास रख "स्वयं पर",
प्रयास कर "निरन्तर",
गिरता, संभलता चलता चला चल,
बढ़ता चला चल निज पथ पर,
पर्वत भी दे देता है रास्ता,
तेरी हठीली "हठ पर",
ना हो विचलित तु क्षण भर,
उद्देश्य अपना "दृढ़ कर",
उठा के फेंक दे हर वो कंकड,
जो बिछे हों तेरी डगर पर,
दे उखाड़ हर शूल,
जो चुभता हो तेरे पग पर,
कर भाग्य विधाता को नमन,
तु कर्म को अपने दृढ़ कर,
क्यूँ रुकता है तु मुश्किलों से डर कर,
रख हौंसला आने वाली "सेहर पर",
चुनेगी स्वयं मंजिल तुझे,
होके चरणों में गद-गद,
नित कर्म कर ,नित कर्म कर,
होना है अगर तुझको सफ़ल ।।

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