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अपने मन को सदा अंतिम भला क्यों रखा मैंने?
क्यों मैने इसकी सुना नहीं?
क्यों मैने इसकी सुना नहीं?
कुछ पता नहीं, कुछ पता नहीं...
जब ध्वस्त हुआ तो देखा कि,
"मेरे मन के अवशेषों में बस मेरा ही मन शेष न था,
कुछ इसका था तो कुछ उसका था,
बस मेरे ही मन का कोई हिस्सा न था,
सबका थोड़ा-थोड़ा किस्सा था,
बस मेरा ही कोई किस्सा न था,
क्या मिला मन को मार के,
कुछ पता नहीं, कुछ पता नहीं,
अब राख है ये मेरा मन,
इसमें अब कुछ भी बचा नहीं
काश कि सुन लेता मैं भी अपने मन की,
काश! कर लेता कुछ तो मैं भी अपने मन की,
अब सुख गए मन के गुलाब,
खुशबू का भी अता-पता नहीं,
नादान था मैं..बना रहा अपने ही मन से अंजान,
अब बाकी मन में अकेला काश है...
और बाकी कुछ भी बचा नहीं,
अपने मन को सदा अंतिम भला क्यों रखा मैंने?
क्यों मैने इसकी सुना नहीं?
क्यों मैने इसकी सुना नहीं?
कुछ पता नहीं, कुछ पता नहीं...!"