कभी शब्द भी व्यर्थ हैं
कभी मौन का भी अर्थ है,
कोई सुन के भी करे अनसुना
कोई बिन कहे भी सब सुन सके,
तो मन की इस किताब पर
लिख नाम उस एहसास का,
अटूट प्रेम का, अटल विश्वास का,
बिन मांगे मिले उस साथ का
जो बिन कहे तुझे पढ़ सके,
होंठों पे खिली हो मुस्कान, फिर भी
आँखों की नमी को समझ सके,
ऐसे अनोखे साथी के, अनमोल साथ को,
रख ऐसे तू सम्भाल कर,
जैसे कोई बहुमूल्य रत्न
रखता है तू सम्भाल कर,
एहसासों को गढ़ के शब्दों में
इन पन्नों पर बिखराई हूँ,
मैं 'दीप्ति' यूँ दीप्त हूँ
जो चाह रखे मुझे समझने की,
बस उसी के समझ में मैं आयीं हूँ,
कोशिशें हों भरपूर-भरसक
दे सकें तो दें मुस्कान हम,
आखिर इतना तो हर कोई समर्थ है,
कभी शब्द भी व्यर्थ हैं
कभी मौन का भी अर्थ है ।।