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प्रशस्त है वो मार्ग जो जाता, अज्ञान से संज्ञान की ओर
प्रशस्त है वो मार्ग जो जाता, अज्ञात से ज्ञात की ओर,
मैं "पथिक" नित प्रयत्नशील
होने को उस मार्ग पर अग्रसर,
मैं "पथिक" नित प्रयत्नशील
करने को अवगत स्वयं के मनरथ,
झर-झर झरती ज्ञान की सरिता,
अर्चन करने को रहूँ मैं तत्पर,
हर बिम्ब प्रतिबिंब देता नवीन निरन्तर अवसर,
दीपायमान है जो ये मन रूपी दीपक,
जिससे दीप्त है ये "दीप्ति",
स्वयं को करूं मैं ये आश्वस्त,
अभिलाषाओं के पंख लिए उड़ जाऊँ मैं नभ पर
क्षण-क्षण घटती ये जीवन यात्रा,
कर जाऊँ अंकित इस पर,
स्वयं के किंचित स्वर्णिम अक्षर।।

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