धधक थी, भड़क थी, चुभन थी
उलझन की इतनी अधिक तपन थी, कि
ना चित्त में चैन था, ना नैनन में नींद थी
बिन आराम थी, इतनी बैचेन थी
फिर मन ने फुसलाकर पूछा मुझसे
किस बात पे इतना चिंतित है
रख विश्वास तु ऊपर वाले पर
अब घबराना नहीं तुझे किंचित है
मैं मौन थी ना कुछ बोल सकी
अपनी व्यथा को शब्दों मे ना तौल सकी
ये मन चतुर सब भाँप गया
मेरी परेशानी सब नाप गया, फिर
मन का प्रत्युत्तर यूँ मिला मुझको, कि
ना तु डग मग हो विश्वास धर
तनिक ठंडी तु श्वास भर
अपने विचलित मन को शांत कर
निश्चल मन से बस अपना काम कर
कदाचित ध्वनि की प्रतिध्वनि नहीं होती
कदाचित प्रेम प्रत्युत्तर भी प्रेम नहीं होता
कर स्वीकार तु अब इस सत्य को
और छोड़ दे जग के सारे झंझट को
यह जग ना किसी का अपना है
बस नाम जप अपने भगवन का
सब का रखवाला तेरा कृष्णा है…।।

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