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“बात उठी है तो दूर तक जाएगी” खासकर तब जब कोई विषय युवा भारत से या उन शैक्षणिक संस्थाओ से सम्बंधित हो, जो भारत का सुनहरा भविष्य तैयार करने में प्रयासरत है। जहाँ से देश का वो कल आस्तित्व में आये जो विश्वपटल पर भारत का नाम रोशन कर सके। लेकिन जब कोई छात्र शिक्षा के मंदिर में अपनी कुंठित सोच के आधार पर देश के संविधान और कानून को, जो प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार और कर्तव्य प्रदान करता है ताक पर रखें, तो कही न कही सवालों के घेरे में वो शिक्षण संस्थान भी आ ही जाता है.

हाल ही में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी चर्चा में है जहाँ एक छात्रा को उसके कुछ सहपाठियों द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर कैंपस खुलने पर कथित रूप से हिजाब पहनने के लिए मजबूर करने की बात ऐसी लहजे में कही गई, "लॉकडाउन के बाद इंशाअल्ला आपको भी हिजाब पहनाया जायेगा वो भी पीतल का" छात्रा के अनुसार,उसने सीएए / एनआरसी बिल का समर्थन किया था, तब से ही उसे इन लोगों द्वारा निशाना बनाया जा रहा था और चेतावनी दी जा रही थी कि उसे अगर एएमयू में रहकर पढ़ना है तो वहां के तौर तरीकों से चलना होगा।

छात्रा की शिकायत के बाद बिहार के रहबार दानिश पर भारतीय दंड संहिता धारा 504, धारा 506, और आईटी एक्ट की धारा 67 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। इस वाकिये के बाद कही न कही फिर एक बार ये सवाल उठता है की आखिर ऐसी सोच एक छात्र के मन मस्तिष्क में कैसे पनपती है की वह अन्य लोगो की आज़ादी का हनन करने की सोचे,आखिर कौन सी ऐसी ताक़त है जो छात्रों को इस तरह से चित्तविभ्रम बना रही है।

कुछ लोगो का ये भी मानना है की पर्दा प्रथा में कोई बुराई नहीं, ये तो महिलाओं को बुरी नज़र से बचाने का तरीका है, तो समझने वाली बात ये है की आस्था और विश्वास पर आधारित किसी प्रथा को अपने मन से मानने में वाकई कोई बुराई नहीं ,लेकिन जबरन किसी के अधिकारों का हनन करके उस पर कोई प्रथा थोपने में तो है।

यदि हम इतिहास की तरफ देंखे, जो की स्पष्ट तौर पर ये बताता हैं कि भारत में पर्दा प्रथा बाहर से आये आक्रमणकारियों की देन है अपने आस्तित्व और अस्मत को बचाने के लिए ही स्त्रियों ने इस प्रथा को अपनाया। हमारे प्राचीन वेदों और ग्रंथों में इस प्रथा का विवरण कही नहीं मिलता बल्कि हमारी सभ्यता तो अथर्वेद के इस श्लोक से प्रकट होती है।

"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते स्वरस्तत्राफला: क्रिया:।।"

धर्मशास्त्र का इतिहास पृष्ठ संख्या 336 और 337 के अनुसार सबसे पहले महाकाव्य में पर्दा प्रथा देखने को मिलती है लेकिन केवल कुछ राज परिवारों में या फिर वो घराने जो नामी होते थे। रामायण, महाभारत व अजंता और खजुराओ की गुफाओं में विद्यमान कलाकृतियों से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है, कि पर्दा प्रथा भारत की सभ्यता नहीं थी बल्कि आक्रमणकारियों के साथ आईं और वक़्त के साथ एक कुप्रथा में तब्दील हो गई।

हालांकि कई ऐसे समाजसुधारक रहें, जिन्होंने इस कुप्रथा का विरोध किया जिसमें राजा राममोहन राय शामिल है। उनके अथक प्रयासों से सरकार द्वारा इस कुप्रथा को गैरकानूनी और दंडनीय घोषित किया गया और आधुनिक युग का सूत्रपात हुआ। आज़ादी की लड़ाई से अब तक कला, साहित्य, राजनीती, विज्ञान, खेल और गीत-संगीत के क्षेत्र में अनगिनत ऐसे उदहारण है जिनसे प्रमाणित होता है कि 'नारी अबला नहीं, सबला है'

जरा सोचिये अगर पर्दा प्रथा हमारी सभ्यता का हिस्सा होती, तो क्या समाज में महिलाओं की ऐसी भागीदारी संभव हो पाती ?

इसका आंकलन 'मजाज़ लखनवी' के इस शेर से भी लगाया जा सकता है कि

तेरे माथे का टीका मर्द की किस्मत का तारा है
तू एक साज ए बेदारी उठा लेती तो अच्छा था।
तेरे माथे पर ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आंचल से परचम बना लेती तो अच्छा था ।।

पर दुर्भाग्य ये हैं कि समाज इस भाव से कोसो दूर रहा और आज़ादी के बाद से महिलाओं के अधिकारों को लेकर जो तुष्टिकरण की नीति अपनाई गई जिसका एक उदहारण है 1978 शाहबानो केस जिसको सही मायनो में इन्साफ 2014 में नरेंद्र मोदी व भाजपा के सत्ता में आने के बाद मिला। जब ट्रिपल तलाक़ को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। इस संघर्ष से तमाम मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक़ के विष से राहत मिली, ऐसे में कही न कही मन में ये सवाल घर करना तो स्वाभाविक हैं कि आखिर क्या कारण थे, कि आज़ादी की लड़ाई में बराबर की भागीदारी देने के बाद भी आम महिलाओं के अधिकारों को इतने ढीले तौर पर आँका गया कि उनके प्रति अपराध की भावना यूँ आम हो चलीं….और निर्भया की संख्या बढ़ती चली गई। डर का माहौल है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेता?

डर का अर्थ सिर्फ जीवन मृत्यु ही नहीं, बल्कि उससे भी अधिक महिलाओं के लिए समाज में दोहरा माहौल कायम करने की है।

जो जब जब अपने सपनों की बात करें और लक्ष्य का पीछा करे तो ये समाज बिना उसकी मेहनत, लक्ष्य के प्रति समर्पण का आंकलन किये उसके चरित्र को आंकने लगता है। समाज के ऐसे दोगले व्यवहार से कही न कही बेटियों का हतोत्साहित होना लाज़मी है, और समाज हम और आप से मिल कर बना है तो ऐसी कुंठित सोच का बदलाव भी हम और आप से ही होगा।

कभी वस्त्रों पर टिका-टिपण्णी, तो कभी स्त्री के गुणों को उसके रंग से तोलना कि गोरे रंग का ज़माना होगा न पुराना। जबकि हम उस सभ्यता का हिस्सा है जहा कृष्णा के सांवले रूप को लावण्य और आकर्षक मानते हैं। लेकिन शायद पाश्चात्य संस्कृति द्वारा विज्ञापनों से हमारे मन में रमा दिया गया हैं कि हम सुंदरता को सफ़ेद रंग से परिभाषित करने लगे। खैर, अगर भारतीय सभ्यता पर बात की जाए तो चाहे सिंधु सभ्यता हो जब समाज मातृसत्तात्मक था, या वैदिक युग जिसमें माहिलाओं के सम्बन्ध में मनु ने लिखा हैं कि महिलाएँ देवी के रूप में सम्मानित थीं। फिर मुग़ल काल में पर्दाप्रथा का आगमन हुआ और ये प्रथा कूप्रथा के रूप में तब्दील हो गई जिसका साया अब भी देखा जा सकता है।

बहरहाल, अब वक़्त वैसा नहीं रहा कि महिलाओं के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार बर्दाश्त किया जाएंगा। आज के दौर में महिलाएं एक बार फिर हर क्षेत्र में प्रगति को लेकर अपार सम्भावनाएं स्थापित कर रही हैं और वर्तमान सरकार भी महिलाओं के निश्चल मन, स्वाभाविक मृदुलता के ठोस आधार पर टिकी उनकी दृढ़ संकल्प, एकाग्रता आत्मचिंतन, शिखर पर कीर्तिमान स्थापित करने की ललक से भली भांति परिचित है और विभिन्न योजनाओं "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" , "सुकन्या समृद्धि योजना", "महिला शक्ति केंद्र योजना", "नारी शक्ति पुरूस्कार" द्वारा समय समय पर प्रोत्साहित भी कर रही हैं। लेकिन फिर कही न कही से ‘कट्टरवाद’ का कोई नमूना महिलाओं को हतोत्साहित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता।

आखिर महिलाओं की इस समाज से बस इतनी चाहती है कि उन्हें सम्मान, सुरक्षा का वातावरण ,सामाजिक परिवेश में बदलाव व भागीदारी, रूढ़िवादिता और दोगले व्यवहार से छुटकारा मिलें। और एक उम्मीद कि समाज में स्थान देने का अहसान न हो बल्कि हमारी समझ, काबिलियत और क्षमता पर भरोसा करें हमारा समाज !

अंत में माननीय प्रधानमंत्री श्री 'नरेंद्र मोदी' जी के कहे इन शब्दों के साथ विराम लगाना चाहूंगी "नया भारत नारी शक्ति के दम पर बढ़ता भारत है, जहां नारी सशक्त, सबल एवं देश के समग्र विकास में बराबर की भागिदार हो।"

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