भारत में ही नहीं बल्कि समूचे वैश्विक समाज में दिन प्रतिदिन महिलाओं के प्रति हिंसा और अपराध की घृणित घटनाओं को देखा जा रहा है । इन घटनाओं में बलात्कार, अपहरण अथवा बहला फुसला के भगा ले जाना, शारीरिक या मानसिक शोषण, दहेज़ के लिए मार डालना, पत्नी से मारपीट, यौन उत्पीड़न आदि अपराध शामिल हैं ।

देश और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में स्वयं को सिद्ध करने वाली नारी आज भी समाज में बराबरी और सम्मान के लिए संघर्षरत हैं।

भारतीय इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा हुआ है जहां किसी महिला के प्रति हिंसा और अपराध की घटना में भयावह दुष्परिणाम को उल्लेखित किया गया है।

इसमें सर्वोत्तम उदाहरण द्वापर युग का विध्वंसक महाभारत उस आईने की तरह उभर कर समाज को हर समय सर्वनाश के पहलुओं से अवगत भी कराने का प्रयास करता है, परन्तु फिर भी कुछ ऐसा है जो समाज मै बदलाव की दरकार रखता है।

हालही मे उत्तरप्रदेश के हाथरस में हुई दुखद घटना ने एक बार फिर, समाज, सोशल मीडिया के क्रांतिवीर और बिना सर पैर की के मीडिया की बयानबाज़ी को सवालो के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बात तब होती है जब बलात्कार, घरेलु हिंसा और अपराध से सम्बंधित अमानवीय घटना पर राजनीति की रोटियां सेकी जाती है. पॉलिटिकल टूरिस्म को बढ़ने का भरसक प्रयास किया जाता है एक क्षेत्र विशेष की नेत्री या नेता दूसरे राज्य के तथाकथित पीड़ित परिवार के पास आश्वासन देने या न्याय दिलवाने की बात करते है और बलात्कारियो को सख्त से सख्त सजा दिलवाने की मांग करते है और इसके लिए खुद को सत्ता में पहुंचने की बात भी करते है, उस राज्य सरकार के विरोध में पहुंचते है जबकि उनके अपने क्षेत्र में महिलाओ से सम्बंधित अपराधों की संख्या कितनी ही है। ऐसे में ये नेता अपनी शक्ति और क्षमता का प्रयोग अगर अपने राज्य और क्षेत्र विशेष की महिलाओ की सुरक्षा हेतु करे तो ज्यादा कारगर साबित होगा।

इसी प्रकार आजकल मीडिया जिसका काम जन जन तक सत्य और सूचना को पहुंचना है, वो अब मीडिया ट्रायल को बढ़ावा देने लगी है,किसी घटना या दुर्घटना पर जांच एजेंसी से पहले बढ़ कर कर खुद ही जांच करने में जुट जाती है जहा सरकारी तंत्र को दरकिनार करते हए पोस्ट मोर्टेम की रिपोर्ट,फॉरेंसिक रिपोर्ट तक का इंतज़ार नहीं किया जाता और समाज में किसी व्यक्ति विशेष के लिए एक राय कायम दी जाती है। पत्रकारों में मी फर्स्ट का चलन भी इस कदर बढ़ गया है, जिसमें तथ्य की सत्यता अक्सर पीछे छूट जाती है। हालही में जिसका सटीक उदाहरण सामने आया जब उत्तरप्रदेश के हाथरस मामले में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का फ़र्ज़ी बयान एक चैनल के फ़र्ज़ी स्क्रीन शॉट के साथ वायरल किया गया और आरोपियों के पिता की फ़र्ज़ी फोटो मुख्यमंत्री के साथ लगाकर प्रदेश का माहौल ख़राब करने का प्रयास किया गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब ऐसे फेक नैरेटिव को जानबूझ कर बढ़ावा दिया जाता है खासकर सोशल मीडिया में फेकˈनैरटिव़्‌, फैक्ट से ज़्यादा ट्रेंड करने लगते है और भोली भली जनता जाने अनजाने में इसका हिस्सा बन जाती है जो फेक और फैक्ट के बीच का अंतर समझ ही नहीं पाती।

अब सवाल ये उठता है कि क्या किसी भी महिला के साथ किसी भी तरह की आपराधिक गतिविधि, किसी धर्म,जाति या क्षेत्र के आधार पर तुलनात्मक हो सकती है ?

और ऐसी घटना पर फेक नैरेटिव को थामे वोटबैंक कि राजनीति कितनी जायज़ है?

हम और आपसे बने समाज और उसके सो कॉल्ड ठेकेदारों का महिलाओ की सुरक्षा के मामले मे बोलना निश्चित ही हमारी पल पल डिगती मानसिकता का प्रतीक है, जिसपर हमे सोचने की आवश्यकता अधिक है।

कही न कही सख्त कानून के बीच, बदलाव तो समाज को ही महिलाओ के प्रति अपनी कुंठित सोच में लाना होगा,क्योकि अपराध है तो कानून भी है सजा का प्रावधान भी है। आकड़ो की बात करे तो नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार 2012 निर्भया रेप केस के बाद झारखण्ड, दिल्ली, असम, उत्तरप्रदेश राजस्थान मध्यप्रदेश महाराष्ट्र ओडिसा केरल हरियाणा उन 10 राज्यों मे शामिल है जहा पर रेप केस दुगने बढे है जहा ये आकड़ा वर्ष 2012 मे 12,772 था वही 2019 मे बढ़ कर 23,173 हो गया,आंकड़ों के अनुसार पिछले 10 वर्षों में महिलाओं के बलात्कार का खतरा 44 फीसदी तक बढ़ गया है. 2010 से 2019 के बीच पूरे भारत में कुल 3,13289 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं।

क्राइम इन इंडिया 2019 की रिपोर्ट के अनुसार,देश में महिलाओ के प्रति अपराध की दर 7.3 % तक बढ़ चुकी है और दुष्कर्म के मामलो में 31% प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि देशभर में 581 फास्टट्रैक कोर्ट गठित किये जा चुके है और दंड के प्रावधान भी पहले से सख्त है और अधिकांश मामलो में फ़ासी की सजा तक निर्धारित की गई है तो सवाल ये उठता है की समाज में ये अमानवीय कृत, ये हैवानियत बच्चियों और महिलाओ के लिए फलती फूलती कैसे है?

इसका उत्तर समाज में रहने वाले व्यक्ति ही दे पाएंगे,सोचने वाली बात ये है की हम रेप, घरेलु हिंसा का मामला सामने आने पर समाज के ठेकेदार तो बन जाते है, लेकिन आखिर ये घटनाये घटती भी तो समाज मे ही है। कुंठित सोच का ताना बाना कही न कही एक परिवार से निकलता है और समाज का हिस्सा बनता है, जहा पर एक व्यक्ति विशेष की परवरिश और समाज की मानसिकता पर ही सवाल सबसे पहले उठता है।

मै, इस लेख को लिख रही हूँ और एक महिला होने के नाते उन सभी पहलुओं को उकेरने का प्रयास इस लिख में किया है जिनसे हर महिला को अमूमन दो चार होना ही पड़ता है फिर चाहे घरेलु गृहणी हो, या बाहर काम करने वाली महिला।

घर पर रहकर घर को बरकत देने वाली पढ़ी लिखी महिला को कमतर आंकना हो, या घर के साथ साथ बाहर निकलकर घर को सबल बनाने वाली महिला के चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा देना हो , रेप, घरेलु हिंसा, ऑफिसेस मे छेड़खानी की तर्ज़ पर मानसिक, शारीरिक और आत्मिक प्रताड़ना जाने अनजाने देना हो,फिर चाहे वो 70 साल की बुज़ुर्ग हो, या 7 साल की बच्ची या फिर एक महिला की तरक्की मे महिला का ही पहरेदार बनना हो।

कही न कही ये सभी स्थितियां अपने आप में समाज पर ही प्रश्नचिन्ह अंकित करती है और इसका जवाब हमारे और आपके पास ही है जरूरत बस उस जवाब को आईने में देख कर नज़र मिलाने की है।

अंत में कुछ पंक्तियों के माध्यम से इस संदर्भ के मूल पर सभी का ध्यान आकृष्ट कर शीघ्र ही एक व्यापक सामाजिक बदलाव की आशा करती हूं:

लूटी अस्मतो का किस्सा
मुद्दों कि शाखों पर झूलता,
कालजई समाज कि भूमिका
फिर एक कोलाहल वाच रहा,

कर्कश उस चीख को
क्यों कोई सुनना न चाहता,
लूटी अस्मतो का किस्सा
मुद्दों कि शाखों पर झूलता,

जिनका पुरुषत्व आज मशाल है थामे
नारीत्व को इनकी नग्न निगाहे नोच डाले,
आज फिर लहराते बुलंद परचम है जो
नुक्कड़ पर ताड़ने को अग्रसर रहते वो,

क्या कहे अब इससे ज्यादा
लूटी अस्मतो का किस्सा,
मुद्दों कि शाखों पर झूलता
और झूलता ही दिखता। 

Discus