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छोटी सी हथेली जब उंगली थाम चली थी
वही तो पापा की नन्ही सी परी थी।
डगमगाते थे कदम तो सहम जाती थी वो
पर पापा को पास पाकर बड़ा मचलाती थी वो।
यू तो ज़्यादा प्यार नही दिखाया उसके पापा ने कभी
पर जिम्मेदारियों से पीछा भी न छुड़ाया कभी।
जो चाहिए वो बेटी के कदमो में हाजिर था।
उसके सामने तो शहंशाह भी काफ़िर था।.
अपनी बेटी के लिए वो बड़े से बड़े कर्ज़ उठाता,
और इस तरह वो बाप होने का फ़र्ज़ निभाता।
लाड़ली की तबियत खराब होने सारी रात जग जाता
और अपने गहरे दर्द वो बड़ी चालाकी से छुपाता।
उंगली पकड़ कर चलना सिखाने से लेकर
खुदके पैरों पर खड़ा रहना सिखाया उसने।
नन्ही सी गुड़िया से,
समझदार बिटिया बनाया उसने।
देखते ही देखते बड़ी हो गई उसकी गुड़िया।
अब दुनिया देखने की ख्वाहिशे थी उसकी
लोगो को जानने की फितरत में।
फ़िर क्या,निकल पड़ी छोड़ के वो थामी हुई उंगली
सोचा कि बहोत सुंदर है ये दुनिया और उसके लोग
लेकिन जब गई उस दुनिया में तो पाया कि सब भेड़िये थे वहां जंगली।
किसीको किसीकी फिक्र न थी वहां
ना ही कोई दिलो का नाता।
लोग निकलते तो थे घर के बाहर, लेकिन आंखों में पट्टीया बांध के।
सूरज भी जहाँ बस यूं ही उदासी में ढल जाता।
जैसा सोचा था वैसा कुछ न पाया उस गुड़िया ने
तब झोले से एक तस्वीर निकाल बस फूसक फूसक कर रोने लगी।
एक ही बात दोहराई उसने ,
पापा ,आओ न फिरसे मेरी उंगली थामने।
नही छुड़ा के भागूंगी फ़िर कभी।
दो कदम और साथ चलना है तेरे
क्यूंकि तेरा एक साथ ही तो है
जो इस दम घोटती दुनिया मे एक सुकून का अहसास देती है।
आओ ना पापा फिर एक बार मेरा हाथ थाम लो
इस बार फ़िरसे हाथ छुड़ा के भागूंगी नही।

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