अपनी चाहत, दुआ, अपेक्षा, बच्चों तक पहुंचाता हूं,
वर्षों से लिखता आया पर, व्यर्थ में समय गंवाता हूं,
बच्चों को लिख देता था, अपने बच्चों को समझा देना,
इन शब्दों, भावों का मतलब, तुम उनको बतला देना।
मेरे बच्चे, अपने बच्चों को, उन की भाषा में समझाते,
कुछ ही छींटे भाव सलिल के, उन को छूते, उड जाते,
पिछली बार 'तनय' ने हमें, एक भावुक पत्र, थमाया था,
भाव सिन्धु, गूगल से, हिन्दी में, ‘ट्रान्सलेट’ करवाया था,
और अभी, इस बार 'दिवित' ने, वही तरीका अपनाया,
मैंने दिल के इन जख्मों को, नहीं किसी को दिखलाया।
तब खुद मैंने, बच्चों के मन में, स्वप्न विदेश का बोया था,
दूरदृष्टि बिन, निज स्वार्थ तज,अपनत्व, प्यार को खोया था,
भाषा ने, सीधा संवाद सूत्र ही, बाबा-बच्चों का तोड दिया,
अब भी मां का दिल रोता है, औ’ तब भी पलपल रोया था।
सत्तरवें मेरे जन्मदिवस पर, उन्होंने कविता एक लिखी थी,
भावसिन्धु में,अपनत्व, प्यार की, मुझ को झलक दिखी थी,
बहुत अभागा हूँ, अपनों से सीधी, बात नहीं कर पाता हूँ,
उनके निहित प्रेम की, गहराई की, थाह कहाँ ले पाता हूँ ?
एक अनोखा केस, मेरे इस, मन न्यायालय में आया है,
और मैंने खुद अपने ही ऊपर, यह अभियोग चलाया है,
जिस का मैं खुद ही जज हूं, वादी, खुद प्रतिवादी हूं,
स्वीकार हर सजा, मान रहा हूं, इकला मैं अपराधी हूं।
अब अरिहन्तों से विनती केवल, हम पर इतनी कृपा करो
"समवशरण की दिव्यध्वनि का, अंश जरा सा अता करो,
जिस से भावों का संप्रेषण, सीधा हो, कोई ' गैप ' न हो,
बाबा बच्चों का संवाद, भाषा, शब्दों का मोहताज न हो।
पर सजा मेरे इन अपराधों की, अन्तिम सांसों तक तय है,
इसीलिए पत्नी की आँखों से, अब मुझ को लगता भय है,
अब आत्मग्लानि मुझको होती है, पर कैसे छुटकारा पाऊं,
इसी अग्नि में तिल तिल कर के, पल पल मैं जलता जाऊं !
अब आत्मग्लानि के महासिन्धु में, पलपल डूब रहा हूँ यारो,
और गम ए जुदाई से क्षण प्रति क्षण, टूट रही है मेरी पारो,
फिर भी सुख सन्तोष हमें है, यद्यपि अपनी ऐसी बदहाली है,
है भविष्य उज्जवल परिलक्षित, अपनों के सुख, खुशहाली है।