दिल के बीचों बीच प्रभू का, छोटा सा मन्दिर बनवाऊं,
फिर दिल में रहने वालों को, उनकी आशीषें दिलवाऊं।
मैंने तो तेरे प्रति भगवन, नहीं कभी कोई कर्तव्य निभाया,
फिर भी मैंने तुम से भगवन, जो भी चाहा सब कुछ पाया,
अब तुम्हीं कहो, ओ मेरे भगवन, कैसे तेरे कर्ज चुकाऊं ?
चालाकी, एहसान फरामोशी, सदा रही मेरी फितरत में,
सुख में भूला रहा आपको, पर याद किया है हर मुश्किल में,
मैं कितना मतलब परस्त हूं, फिर क्यों कृपा तुम्हारी पाऊं ?
प्रभु ! आपको हृदय में रखने में, लेकिन मेरा स्वार्थ छुपा है,
मन से कभी नहीं कृतज्ञ रहा मैं, सदा कृतघ्नता भाव रहा है,
आपको ह्रदय में बैठा कर, कुछ स्व सपने साकार कराऊं।
“यही भाव हैं मेरे मन के, कभी, नहीं किसी को दुख पहुंचाऊं,
सब जीवों के दुख में लेलूँ, पर उन सब को बस सुख दे पाऊं,
और आपके पावन चरणों की, मैं रज बन कर ही रह पाऊं। “
“ तेरी पावनता का हे प्रभु, अंश जरा सा अगर में पाऊं,
जन्म मरण के भव फन्दों से, शायद मैं मुक्ति पा जाऊं,
पापकर्म से युद्ध लड़े पर, मन के भाव ही शुद्ध रखे हैं,
यद्यपि दुख सहे हैं लाखों, अंत में मीठे फल ही चखे हैं,
तुम जैसा ही करुणा सागर, जन्मों जन्मों तक मैं पाऊं,
अपने तन, मन और भाव से, यही भावना प्रतिपल ध्याऊं। “
“ अन्तिम इच्छा यही शेष है, जल्दी इस काया को त्यागूं,
जीर्ण शीर्ण होने से पहले, इस काया से मुक्ति पालूं,
नश्वर काया के अंगों को, कुछ जरूरत मन्दों में बांटूं,
दिल में बनबाये मन्दिर को, नई काया के मध्य सजा दूं,
और भाव सिन्धु की पावनता को, हर प्राणी तक पहुंचाऊं,
अपनत्व, प्यार की दिव्यमहक से, युगयुग तक ये जग महकाऊं।”
बस इतना सामर्थ्य, समय दो, ये अभिलाषा पूरी कर पाऊं,
और बदले में प्रभु आप के, बस चरणों की, रज बन जाऊं ।