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हमको महिला दिवस मनाते, सदी से ज्यादा बीत गई है,
ना अब तक कुछ हालत सुधरी, नारी की दुर्दशा वही है,
कितना जागरूक किया नारी को, कितने ही क़ानून बनाये,
पर अब तक हम नारी को, नर के समकक्ष नहीं कर पाये ।

अब भी बेटियां कोख में मरतीं, बेटा पाकर खुश पति पत्नी,
अभिशाप अभी भी बेटी होना, डींग हाँक लो चाहे जितनी,
बेटी पर अंकुश रहता है, लेकिन बेटों के सौ खून माफ़ हैं,
बहू, बेटियां हीं गलती करतीं, पर बेटे सबके पाक साफ़ हैं ।

पुरुष प्रधान इस समाज में, पुरुष घूमता बना दरिन्दा,
खुले आम कलियों को नौंचे, होता पुरुष नहीं शर्मिन्दा,
बर्बरता की हदें लांघ कर, टुकड़े टुकड़े तक कर देता,
फिर भी इस समाज को देखो, लाँछन बेटी को ही देता ।

शादी के मण्डप में आज भी, जो भी वचन भरे जाते हैं,
उन में से, पत्नी के हित में, बोलो कितने कुछ आते हैं,
संशोधन उन में करना है, नारी हित उन में भरना है,
अब हमने महिलाओं के, सारे दुख दर्दों को हरना है ।

एक माह में तीन दिवस की, छुट्टी भी लेती है महरी,
पर एक पल भी आराम मुझे ना, बदकिस्मत जो ठहरी,
दो रोटी की खातिर करतीं आईं, हम बंधुआ मजदूरी,
नियति यही है, घर में पिसना, चाहे कोई हो मजबूरी ।

कहने को तो पति ने सौंपी, हम को माया, कुंजी सारी,
लेकिन कुछ भी खर्च करें मर्जी से, हिम्मत नहीं हमारी,
कभी भूल से कुछ ले आती, तो भौहें चढ़ती पति की,
स्वेच्छा से बनी हुई हैं, जन्म जन्म से दासी जिस की ।

भूत का डेरा था जो पति का, उसे हमने चमन किया है,
फिर भी, पति ने, पत्नी का ही, हर पल, दमन किया है,
पति के सुख की खातिर दी हमने, युग युग से कुर्बानी,
पर जुल्मी ने, मूर्ख ही समझा, कदर नहीं कुछ जानी ।

युग युग से पत्नी का शोषण, पतियों ने खूब किया है,
अधिकारों को छीन, फर्ज का, बोझा डबल किया है,
पहले तो, अपने घर तक ही, नारी सीमित रहती थी,
गृह अर्थ व्यवस्था के जुगाड़ में, कष्ट कहाँ सहती थी,
अब तो घर में भी पिसती है, ऑफिस भी जाती है,
और उस पर पति के उल्टे सीधे, ताने भी खाती है ।

जग की आधी आबादी को, अबतक मिली कहाँ आजादी,
है कौन यहाँ, जो जनरल बन पाई, सब की सब हैं प्यादी,
आँख मूंद कर हुक्म मानना, बस पत्नी की यही नियति है,
हम हाँ में हाँ कहते हैं डर कर, पति समझे कि सहमति है ।

सोचो घर को, बच्चों को सम्हालना, क्या आसान भला है,
उस पर पति को, खुश रखना भी, कितनी बड़ी कला है,
फिर भी दो पल का आराम हमारा, पति को सदां खला है,
उस ने झूठ मूठ का प्यार दिखा कर, हम को खूब छला है ।

हम पति के लाखों जुल्म भी सहते, फिर भी नहीं गिला है,
अपने मरने, खपने पर भी, पति का, चेहरा नहीं खिला है,
हम हाड़, मांस के भावुक पुतले, वो समझे मात्र शिला है,
फिर भी हम को, दो रोटी से ज्यादा, कभी नहीं मिला है ।

आज भी बहुत से ऐसे हैं, टुन्न हुए पीकर घर आते हैं,
मार पीट ही नहीं, तरह तरह के, जुल्म बहुत ढाते हैं,
लिखा जरूर है संविधान में, कि हैं नारी, पुरुष बराबर,
खुले आम फिर क्यूँ होते नारी पर, ये अन्याय सरासर ?

बहनो, मात्र एक कारण है इसका, नहीं संगठित हम हैं,
इसीलिए अपनी किस्मत में लिक्खे,तरह तरह के गम हैं,
अब जुल्म सहो मत,चुप बैठो मत,रहो संगठित बनकर,
अब और नहीं पतियों से डरना,सब लोहा लेना जमकर ।

''अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस'' पर, सब बहनो एक हो जाओ,
अपने अधिकारों को जानो, जुल्मी लोगों को सबक सिखाओ,
अब इन की, मीठी मीठी बातों में, तुम बिल्कुल मतआना,
वरना होगा किश्तों में कटना, मिटना, जीवनभर पछताना ।

पुरुष प्रधान यह समाज है, इस में पुरुषों की सत्ता,
नारी ज्यादा समर्थ, सक्षम, पर उसकी नहीं महत्ता,
करती है सर्वस्व न्यौछावर, कुछ रखती नहीं अपेक्षा,
कर्तव्य निर्वहन करती, फिर भी मिलती उसे उपेक्षा ।

नारी सृष्टि सृजक, पोषक, मनुज अस्तित्व केन्द्रबिन्दु,
फिर क्यूं उस के नयनों में मिलते, भरे अश्रु के सिन्धु ?
हर वर्ष, थीम, रंग अलग, करने के संकल्प अलग हैं,
सत्य प्रमाणित करते, निष्पक्ष न्याय के अंश किधर हैं ?

स्वाभिमान को भूल, अधिकार, भीख में मांग रही हो,
लोलुप दरिन्दों के झुंडों से,भीख रहम की चाह रही हो,
नारीहित के नारों, वादों के, चंगुल में मत फंस जाना,
सुन्दरता पर ध्यान करो कम, आत्म निर्भर बन जाना ।

तब समाज में नारी के सम्मान, ज्ञान का, ऊंचा ग्राफ उठेगा,
और धीरे धीरे स्वयं देखना, पल पल पुरुष का वर्चस्व घटेगा,
नारी भोग की वस्तु न होगी, और देवी का सम्मान मिलेगा,
पुरुषों के अत्याचारों का फिर, तुम्हें ना कोई अंश दिखेगा ।

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