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अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे,
क्या कोई, इस में घुले, दुख दर्द की, तासीर समझे?
वेदना ने हो विवश, मनुहार की संवेदना से,
अश्रु संचालित हुए, मनभाव की संवेगना से,
यह प्रबलतम विवशता का, क्रूरतम अभिशाप समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
पीर के आवेग जब जब, पार कर जाते हदों को,
आह घुलकर नीर में, तब जन्म देती अश्रुओं को,
सीमान्त होती पीर का ही, अश्रु एक पर्याय समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
सोचता यदि अश्रु केवल, नीर की एक बूंद होता,
इन कपोलों की लकीरों, का न नाम औ’ निशां होता,
जल उडा पर रह गई, दुख दर्द की तहरीर समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
हृदय का असहनीय बोझा, अश्रुओं ने कम किया है,
मन प्राण का आघात विष, इस तरह बाहर किया है,
रक्त से छन नीर, पीड़ा से हुआ अभिशप्त समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
होकर विवश मन भावनाएं, नीर में घुलती रहीं हैं,
संक्षेप में हर करुण गाथा, गाल पर लिखतीं रहीं हैं,
दर्द को लिखने में सक्षम, पीर की यह इंक समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
अश्रुलिपि को वांचना, शब्द भाषा से परे है,
दास भाषा के नहीं यह, भाव ही इनमे खरे हैं,
भाव की अभिव्यक्ति करना, अश्रु का ही कृत्य समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
आवेग का आधिक्य लेकर, चक्षु से गिरते रहे हैं,
हर भावना के सिन्धु को, संतुलित करते रहे हैं,
यह तुम्हारी जिंदगी का, मात्र एक उपहास समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
क्षत विक्षत काया से रिसता, रक्त कहलाता वही है,
आत्मा का खून जो हो, अश्रु बन पाता वही है,
काय से ज्यादा भयानक, आत्मा आघात समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
अन्याय जब जब इस धरा पर, बेवजह बढ़ता रहा है,
विद्रोह, ताण्डव नृत्य मन में, अद्रश्य ही चलता रहा है,
अदृश्य पलती क्रूरता का, है यही एक चिन्ह समझे।
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे…..
अश्रु को तुम क्यूँ भला बस, नीर की एक बूंद समझे,
क्या कोई, इस में घुले, दुख दर्द की, तासीर समझे?