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आगन्तुक है अतिथि प्रथम दिन, दूजे दिन है बोझा,

तीजे दिन से कंटक बन कर, चुभता थोडा थोडा,
पांच सितारा डिश से गृहणी, खिचड़ी तक आ जाये,
चिपकू, अड़ियल आगन्तुक तब, है नासूर सा फोड़ा।

मेजबान रह रह कर खुद ही, अपना माथा ठोके,
संयम, मर्यादा में रह कर, उस को रोके टोके,
कच्ची, जली रोटियों की जो, भाषा समझ न पाए,
फिर भी उसे परोसे गृहणी, लाज से मर मर जाए।

दूर किचिन में जब चम्मच से, थी डिबिया खटकाई,
संकेतों के जरिये उस ने, गुप्त खबर भिजवाई -
“अजी सुनो मेरे कप में, मत डाल के चीनी लाना,
डायबिटीज का डर है हमको, फीकी ही पिलवाना।”

मेहमान नवाजी की गरिमा को, जो खुद न रख पाए,
मेजबान संकोच के कारण , कुछ भी ना कह पाये,
मंहगाई के चर्चे भी जब, काम नहीं कर पायें -
बड़े प्यार से, हाथ जोड़ कर, उसको यह बतलायें।

‘हम सबको तो कुछ दिन को अब, दूर शहर को जाना,
पीछे स्वयं पकाना या फिर, खुद ‘ऑन लाइन’ मंगवाना,
फिर भी देखो ऐसा जुल्मी, नाम न ले जाने का,
तो ऐसा शस्त्र छोडिये जो फिर नाम न ले आने का।

ना कुछ भी कहते बनता है, ना कुछ सहते बनता,
तेरे ही प्रस्थान दिवस को, हर दिन हर पल गिनता,
सीधे साधे शब्दों में ही, खुल कर यह समझा दो -
‘मेहमान नवाजी के संकट से, अबतो मुक्ति दिलादो.’

देखो ऊपरी आमदनी का, रहा ना कोई जरिया है,
और बाबा, दादा के टाइम में, बहा न धन दरिया है,
सिर्फ माह के अंतिम दिन ही, एक वेतन मिलता है,
पर बीच माह में तुमने मुझको, कर्ज में डुबो दिया है।

देख कंस से ज्यादा तुमने, हम पर जुल्म किया है,
और जोंक की भांति ही तुमने, मेरा खून पिया है,
अब तो पिंड छोड़ दे मेरा, मेरे प्यारे प्यारे भईया -
तुमने याद दिला दी मुझको, दादी, नानी, मईया।

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