अपनत्व, समर्पण, त्याग हुईं अब, बात कहानी किस्सों की,
आत्म निर्भरता, संज्ञान में रखती, अपने अपने हिस्सों की,
लुप्त सामजिक, नीति, नियम, गरिमा, मर्यादा रिश्तों की,
याद रखें बस, तेरा मेरा, और अपनी अपनी किश्तों की!

गुण, धर्म, जाति और संस्कार, हैं व्यर्थ ये बातें किस्मों की,
अब तो स्वसंतुष्टि और नवीनता, सिर्फ जरूरत जिस्मों की,
अब देख देख नवजीवन शैली, नवपीढ़ी और चलचित्रों सी,
सोहबत हम सबको प्रिय लगती, सोशल साइट, मित्रों की!

अब कहाँ जरूरत शेष बची है, शादी की और बच्चों की?
संबंधों में ईमानदारी, पारवारिकता, सीधेसादे, सच्चों की,
अब दकियानूसी बातें लगतीं हैं, पति पत्नी के रिश्तों की,
उन्मुक्त यौन व्यवहार, आचरण,चाह बूढ़े नये फरिश्तों की!

शर्म, हया, संयम, मर्यादा, अब धीरे धीरे ध्वस्त हो रहीं,
और विकल्पों से पारिवारिक, सभी जरूरत ख़त्म हो रहीं,
शायद मानव का अस्तित्व, इतिहास विगत का ही बन जाये,
या फिर सृष्टि, विकसित मानव से, अलैंगिक प्रजनन करवाये।

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