अब त्याग विदेशी, धारण किया, भारतीय परिधान,
शमशीर फेंक, हाथों में थामा, भारतीय संविधान,
खोली आँखों की पट्टी, और बदल लिया रंग रूप,
निष्पक्ष, सरल, न्याय मिलेगा, नैतिकता अनुरूप।

बंद आँखों से, भला कैसे देखती, कौन सा पलड़ा भारी,
शमशीर देख डर, खौफ हावी था, क्या वादी, प्रतिवादी,
अन्धे न्यायतंत्र में सारे, करते थे, बस अपनी जेबें भारी,
उसे पता क्या, आँखों की पट्टी ही, बनी न्याय हत्यारी?

भ्रष्ट व्यवस्था के लोगों के लिए, शमशीर का डर कैसा?
खुल्लम खुल्ला तारीख बताने, तक के, ले लेते थे पैसा,
देते थे वे तर्क, कि कानून की आँखें, होते हैं सिर्फ गवाह,
पर बिके गवाह करते रहे, कितने निर्दोष, परिवार तबाह।

कुछ भ्रष्ट न्यायदूत, "कुछ अपनों" को, जेबों में रखते थे,
शायद डर, खौफ के कारण, रात में न्यायालय खुलते थे,
उनके निर्णय पर कुछ कहना, शान में होती थी गुस्ताखी,
कैसे, कोई, क्या कह पाता, जब सामने शमशीर थी भारी।

अब स्वयं आँख से देख सकेगी, तर्क, साक्ष्य, हालात,
विश्लेषण कर समझ सकेगी, सब छुपे, स्वार्थ जज्बात,
न्याय तराजू के पलड़ों में रखे, किस के तर्क हैं भारी,
कर्तव्य निर्वहन सक्षम करने, श्री धनञ्जय की आभारी।

अब धीरे धीरे मिटा रहें हैं, हम सभी गुलामी के प्रतीक,
फिर अंग्रेजी क़ानून के निर्णय, कैसे लगते हमें सटीक ?
इसीलिए हमने अंग्रेजों का, 'इंडियन पीनल कोड' हटाया,
निष्पक्ष न्याय को, सार्थक, "भारतीय न्याय संहिता" आया।

अब तक तो देखी, काले धन्धों की, अन्धी न्याय व्यवस्था,
जल्द दिखेगी निष्पक्ष, पारदर्शी, अनुपम, न्याय व्यवस्था,
जिसे वादी, प्रतिवादी दोनों ही, दिल से स्वीकार करेंगे,
अब तो झूठे केस लगाने वाले, हमको, ढूंढे नहीं मिलेंगे।

अब कानून अन्धा है नहीं, और नाहीं है, डर का पर्याय,
संविधान, तथ्य, साक्ष्य, तर्क से, अब निष्पक्ष होगा न्याय!
अन्धा कानून, अन्धी प्रणाली, ये जनता सहती कब तक,
कुशल, दूरदर्शी, नेतृत्व के प्रति, हम गर्वित, नतमस्तक।

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