एक अहिंसादूत का बोलो, लाठी से अभिप्राय ही क्या था?
कहो अहिंसा दूत आप का, इस लाठी से रिश्ता क्या था?
क्या गांधी का इस लाठी से, कहीं कोई इतिहास जुडा था?
लेकिन अन्तहीन ऐसे प्रश्नों में, मेरा मन खुद ही उलझा था।
तभी वहां पर आया प्यारे, हट्टा कट्टा एक मुस्टण्डा,
शायद कृपा पात्र हो करता, काला पीला कोई धन्धा,
भेंट किया था उन चरणों में, महीने भर की चौथ का चन्दा,
लेकिन मैं तो समझ सका न, यह सब क्या था गोरखधन्धा?
दोनों चित्रों के अंतर पर, यह मन पहले ही अटका था,
अन्तरंग संबंधों को लख, मन ने फिर खाया झटका था,
तन से मन का रिश्ता टूटा, जो दुविधा में ही अटका था,
क्योकिं -
तभी किसी बूढ़े व्यक्ति पर, पुलिस मैन डंडा फटका था।
डर कर उस बूढ़े व्यक्ति ने, झट से अपनी जेब खला दी,
नत मस्तक हम हुए देख कर, गांधी भक्तों की आजादी।
बड़े जतन से, हिम्मत करके, मैंने उस से पूंछा भाई -
“शांतिदूत गांधी के कर में, मुझको लाठी नहीं सुहाई,
विनती करता कुछ बतला दो, मेरे आका ! मेरे साईं!
हाथ जोड़ अनुरोध कर रहा, बतला दे गांधी अनुयायी।“
द्रवित हुआ और बड़े चैन से, उसने हमको बात बताई -
“ गांधी मकसद पूरा करते, हम सब गांधी के अनुयायी,
गांधी मनसा प्रकट चित्र से- ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’,
" तू मेरी आज्ञा, शिरोधार्य कर, जितना चाहे उतना खैंच।”
भारत का इतिहास गवाह है, नहीं चलन कोई नया चला है,
सरकारी मन्दिर में बोलो, क्या बिना चढ़ाये, कोई फला है?
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