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ग्राहक को, ग्राहक नहीं, अतिथि समझो साथियो!
हर अतिथि, भगवान का अवतार समझो साथियो!!
ग्राहक जहाँ भी जायेंगे, समृद्धियाँ है लायेंगे,
ये जिस जगह होते नहीं, वर्बादियाँ ही पायेंगे,
है जरूरी ये सभी, संतुष्ट हों, खुशहाल हों,
हम दुआ, धनधान्य से, खूब मालामाल हों।
सन्तोष इनका, अपनी प्रगति का, केंद्रबिंदु साथियो!
अपनत्व और सौहार्द की, नव नींव रखिये साथियो!!
उपस्तिथि इन की तो, हमारी, रोज दीवाली मना दे,
अभाव इनका हम सभी का, सिर्फ दीवाला निकाले,
मुस्कुराकर, इन से मिलें, इस में कुछ जाता नहीं है,
फिर क्यूँ अतिथि सत्कार में, कंजूस रहते हम सभी है?
है यही, उन्नति का मूल मन्त्र, रामवाण साथियो!
चलती फिरती लक्ष्मी का, रूप समझो साथियो!!
मानते, कुछ ग्राहकों का, सोच होता भिन्न है,
सहयोग पूरा दो परन्तु, फिर भी होता खिन्न है,
ग्राहक हमारा कोई भी, ना प्रेत है, ना जिन्न है,
अन्नदाता और प्रगति का, यह अंग, अभिन्न है।
कभी महाकाली और शिव का, रौद्ररूप साथियो!
" अतिथि देवो भवः ", यही बस, याद रखना साथियो!!
दिल ग्राहकों का जीतना, लक्ष्य रखिये साथियो,
दिल ग्राहकों का जीतना, है पुण्य कर्म साथियो,
सिर्फ संतुष्ट ग्राहक, उन्नति का मूलमन्त्र साथियो!
खुश ग्राहकों से, स्वप्न सारे, साकार होंगे साथियो!!
ग्राहक को, ग्राहक नहीं, अतिथि समझो साथियो!
हर अतिथि, भगवान का अवतार समझो साथियो!!
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