सत्तर वर्षों में कितने ही आये और आ कर चले गए,
हम उन के झूठे वादों से, हर बार निरन्तर छले गए,
फिर भी न समझ पाए अबतक, हम उनके षडयंत्रों को,
स्वार्थसिद्धि और देशद्रोह के, मंतव्यों और यन्त्रों को।
हम स्वस्वार्थ के अन्धे लालच में, खुद देशद्रोही, गद्दार बने,
आरक्षण, दारू, दो चार टके में, बिक जाते, ना खुद्दार बने,
हम को है गुलामी परमप्रिय, हम स्वाभिमान को क्या जानें,
हम चापलूस औ' चरणदास, क्या स्वहित, देशहित पहचानें ?
अपना विवेक, झूठी, मीठी बातें सुनके, लालच में आ जाता है,
'दस दिन में कर्जा माफ़ करूँ', इस पर किसान बिक जाता है,
भिखमंगे क्यों तुम बनते हो, आओ मांगो उन्नत बीज, खाद,
बेहतर पानी के साधन, नित नई वैज्ञानिक तकनीक आदि,
खेती को खेती मत समझो, ये तो आधुनिक "इंडस्ट्री" है,
इससे कम मेहनत में ही तुम, ले सकते सर्वोत्तम उत्पाद।
जो पिछले सत्तर वर्षों से, हम सब को पागल बना रहे,
ऐसे झूठे, मक्कारों पर ही, हम अपनी श्रद्धा दिखा रहे,
जो स्वाभिमान से जीने की, हम को राह दिखाता है,
वह पागल क्या जाने हमको, नाली में रहना भाता है,
नाली के कीड़े, हम गुलाम, अस्तित्व हमारा इतना है,
मुफ्त की चीजें पाकर के, सबका जमीर तय बिकना है।