गहन अँधेरे, मन को घेरे, कैसा यह अँधियारा,
लगता सूर्य, चांद, ने भी, त्याग दिया उजियारा,
या मेरे ही इन नयनों की, क्षमता लुप्त हुई है,
बर्बादी, किस्मत में गहरी, साजिश गुप्त हुई है।
इसीलिए क्या साये ने भी, छोड़ा साथ हमारा?
अब के कैसा घिर आया, अद्भुत घुप्प अँधियारा?
न कोई कलरव, किलकारी, न हलचल पड़े सुनाई,
मुझ को किस्मत ने ये कैसी, निर्दयता दिखलाई,
मधुर चांदनी ने क्या अपनी, शीतलता है खोई,
क्या सूरज ने गर्मी खो दी, बतला दे यह कोई ।
क्या एक शव की भांति हो गया, है अस्तित्व हमारा?
अब के कैसा घिर आया, अद्भुत घुप्प अँधियारा?
जिव्हा है कुंठित लुंठित सी, कैसे यहाँ पुकारूँ?
दम घुटता है, चीखूँ कैसे, कैसे मौन मैं धारूँ?
बेवश सा इस धरती पर, अब मैं पड़ा हुआ हूँ,
असमंजस के चौराहे पर, इकला खड़ा हुआ हूँ।
जब से छोड़ दिया है देखो, तुम ने साथ हमारा।
नहीं मौत ने भी पकड़ा है, अब तक हाथ हमारा।