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लाखों दुख हैं, लाखों गम, दर्द, चुभन सहते हर दम,
आहों से अभिशप्त रहीं हैँ धड़कन सांसों की सरगम,
फिर भी जीने की चाहत क्यूँ, न अबतक हो पाई कम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

बीत गया, जो बीत गया है, व्यर्थ ही उस पे रोना क्या,
औ’ भविष्य की चिंताओं में, चैन सुकूं को खोना क्या,
भविष्य, विगत के भ्रमजालों में, वर्तमान क्यूँ खोते हम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

सांस, धड़कन, जिन्दगी संग, हर मुसीबत ही जुडी है,
पर मौत ही, संग अपने, सब मुश्किलों को ले उडी है,
इस मौत की दरियादिली को, क्यूँ नहीं स्वीकारते हम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

मौत सभी के, निष्पक्ष हरती, सारे दुख और कष्ट तमाम,
फिर भी सब की सहे उपेक्षा, तिरस्कार ही उस के नाम,
कभी सोचना, क्यों ढाते सब, उस पर ऐसे जुल्म सितम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

उस की नज़रों में हैं दुनियां के, सारे ही जन एक समान,
फिर क्यूँ नहीं मिला है उसको, एक पल का भी सम्मान,
किन दुष्कर्मों की सजा भोगती, सहती बेवश और बेदम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

जैसे स्वागत जीवन का करते, वैसा मृत्यु का भी तो करो
कुछ उपकार उस संकटमोचक, मुक्तिप्रदाता पर भी करो,
किस कारण, किस पूर्वाग्रह से, अन्याय मौत पे करते हम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

सिर्फ जरूरत के रहने तक, होते सब रिश्ते नाते अपने,
साबित करते हैं झूठे सब, अपनत्व, प्यार, भ्रम के सपने,
देख जरूरत के दर्पण में, प्रतिबिम्ब जड़े, पर नहीं हैं हम !
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

असमंजस भी है, दुविधाएं भी, या किस्मत की है नाराजी,
मैं ना जानूं किसके अधीन है, यह अपने जीवन की बाजी,
" मौत ही सच्ची साथिन " फिर क्यूँ, नहीं मानते ऐसा हम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

ये गूढ़ रहस्य है या बिडम्बना, या सोच से बंधी समस्या है,
क्या ऋषि मुनियों ने नहीं करी कोई, ऐसी कहीं तपस्या है,
क्यों खुशियों के दुश्मन, मित्रों में, भेद नहीं कर पाये हम ?
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

अब अपनों से भी, दिल की बातें, कहने से डर लगता है,
उनको कष्ट न हो मेरी बातों से, पल पल ही मन डरता है,
अबतो ऐसी कितनी बातें, दिल में, कैद किये रहते हैं हम।
लाखों दुख हैं, लाखों गम…..

सीख लिया चुप रहना अब तो, लोभ सुखों का त्याग दिया,
हर इच्छा को मन की कब्र में, बस गहरे तक दफ़न किया,
अब बेसब्री से औ' बिना डरे ही, मृत्यु राह पर खड़े हैं हम !
ईश्वर से विनती इतनी है, जल्दी, धड़कन, सांसें करें ख़तम !!
धरती का बोझा हो कम, मत ढाओ हम पर, जुल्म  सितम !!!

लाखों दुख हैं, लाखों गम, दर्द, चुभन सहते हर दम,
आहों से अभिशप्त रहीं हैँ धड़कन सांसों की सरगम,
फिर भी जीने की चाहत क्यूँ, ना अबतक हो पाई कम ?

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