इस काव्य की रचना 1993 में शुरू हुई जिस दिन मेरे बड़े पुत्र का सीबीएसई का 10th का मैथ का पेपर था और मैं बस से ऑफिस के कार्य से अलीगढ़ से बुलंदशहर जा रहा था । धीरे धीरे समय बीतने के साथ छोटा पुत्र डॉक्टर बना, मुझे तीन Grand sons के उपहार मिले और मैं अपनी अभिलाषायें इस काव्य में जोड़ता रहा। वर्ष 2015 में ईश्वर ने मुझे Grand daughter का अद्भुत उपहार दिया तो मैंने इस काव्य का मुखड़ा ही बदल दिया जिस के बाद ही मुझे असीम संतुष्टि का अनुभव हुआ। ये " मेरी अभिलाषायें " शुरू से अब तक मेरे दिल के सबसे करीब है और अपने ईश्वर से अपनी नित्य प्रार्थना बन गई है । लेकिन आँखों के तारे, प्राणों के प्यारे हमारे करीब नहीं, अमेरिका और कनाडा में रहते हैं जिनके पास हम प्रायः जाते रहते हैं।

हे प्रभो! उस ज्ञान का, भण्डार देना पुत्र को,
अज्ञान, तम जो हर सके, वह ज्ञान देना पुत्र को।
हर व्यसन और दुर्गुणों से, सदैव दूर, विरक्त हो!
हे प्रभो!

व्याख्या हों तर्क संगत, वर्तमान, भविष्य की,
पग कंट बाधित न करे कोई, राह उनके लक्ष्य की।
यश मिले, संतोष भी और विश्व सारा मित्र हो!
हे प्रभो!

धन मिले बस मात्र इतना, सत्कर्म कोई ना रुके,
चाह उतनी होवे पूरी, अभिमान ना मन को छुए।
विश्व जन कल्याण को, परमार्थ में ही लिप्त हो!
हे प्रभो!

अधिकार की सीमा न हो, पद मान वह मिलता रहे,
आत्म बल, संतोष से ही, मुख कमल खिलता रहे।
यूँ रहे, जैसे गगन में, चौदहवीं की चाँद हो!
हे प्रभो!

जिसको छू ले, दुख, दर्द, पीड़ा, दूर क्षण में कर सके,
दीन, हीन, असहाय, निर्धन का, मसीहा बन सके।
नीरोग हो कर वो सभी, शुभ कामना दें मग्न हो!
हे प्रभो!

जो भी पढ़ें, सीखें, करें, कंठस्थ सारा रख सकें,
उसी अनुभव, ज्ञान से, कल्याण जग का कर सकें।
सिर्फ खुद, इनका नहीं, हर जीव का कल्याण हो!
हे प्रभो!

पारतोषिक वह मिलें, जो विश्व में सर्वोच्च हों,
व्यवहार, सौम्य, सरल हो, मनभाव शुद्ध, उच्च हों।
सिर्फ घर, भारत नहीं, इस विश्व में विख्यात हो!
हे प्रभो!

ज्ञान ऐसे दो विलक्षण, नाम जग में कर सकें,
वसुधैव कुटुंबकम के, भाव जग में भर सकें।
इंसानियत के धर्म से, परिपूर्ण, सुख संपन्न हो!
हे प्रभो!

हे प्रभो ! उस ज्ञान का, भण्डार दें सन्तान को,
अज्ञान, तम जो हर सके, वो ज्ञान दें सन्तान को।
हर व्यसन और दुर्गुणों से, सदैव दूर, विरक्त हो!
हे प्रभो!

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