Image by Stela Di from Pixabay
सन 1979 में मेरी,
पहली पहली यात्रा थी हवाई,
तब स्वर्ग से विमान में,
घुसते ही,
आसमानी परिधान में लिपटी,
आसमान से उतरी,
" उड़न परी " यानी 'एयर होस्टेस',
विमान में चहकती नजर आई।
हमने अपना बोर्डिंग पास,
उसकी ओर बढ़ाया,
तो उसने हमें,
कनखियों से निहारा,
हमें हमारी नियत सीट पर बिठाया,
फिर थोड़ा सा,
व्यावसायिकता से मुस्कुराई,
तो हमने भी अपने,
मस्तिष्क की हंडिया में,
ख्याली शाही पुलाव की रेसिपी पकाई!
शीघ्र ही उड़नपरी,
मोहक अदाओं के संग,
ट्रे में कुछ मिनी सील्ड पैकेट्स,
सौंफ और टॉफी ले आई।
हमने कहा -
हम कोई बच्चे थोड़े ही हैं,
जो टॉफ़ी खायेंगे,
खैर ! लाई हो, तो तुम्हारी पेशकश,
अनुरोध को नहीं ठुकरायेंगे,
पर, हम एक, दो नहीं,
तीन, चार उठायेंगे,
घर जाकर,
एक हम खायेंगे,
और एक एक,
बीबी, बच्चों को खिलायेंगे।
दूसरी ओर -
हमारा अन्तर्मन चीखा, चिल्लाया -
" हमें बच्चा समझकर,
टॉफ़ी से मत बहलाओ,
इन सॉफ्ट सॉफ्ट मक्खन के हाथों से,
कोई 'हार्ड ड्रिंक' ले आओ,
यदि उपलब्ध न हो तो,
मारो गोली,
कोई गम नहीं है,
तुम खुद एरिस्टोक्रेट की बोतल से,
कम नहीं हो।
फिर एक सील्ड पैकेट को लेकर,
उस से प्यार से पूंछा -
" इस में क्या है,
और किस लिए ?"
वह बड़ी नजाकत से बोली -
' इस में है रूई,
जिसे आप अपने कानों में लगायेंगे,
क्योंकि -
विमान के ऊपर उड़ते ही,
हवा का दबाव,
कम हो जाता है,
इसलिये कान में रुई लगाना,
कुछ के लिये,
जरूरी हो जाता है।'
भाई, हमने तो तुरन्त स्पष्ट कह दिया -
" माफ़ करना,
हम अपने ऊपर,
ऐसा कोई जुल्म नहीं कर पायेंगे,
क्योंकि -
आपकी मधुर आवाज की झन्कार का,
लुत्फ़ कैसे उठायेंगे,
ऐसी मोहक सुरीली आवाज के,
जादू से वंचित नहीं रह जायेंगे ?
अरे ! तुम जैसी,
अजन्ता की मूरत को देख,
हमारे खून के दबाव में,
स्वतः ही बढ़ोत्तरी हो जाती है,
अतः कान में रुई लगाने की,
जरूरत ही कहां रह जाती है।"
हमें लगा -
यह हवाई यात्रा नहीं,
खुले आम दिल की ठगी है,
क्योंकि हर उड़नपरी,
नख से शिख तक,
पूरी की पूरी,
मिश्री की डली है,
और निखालिस,
ग्लूकोज से पगी है,
या फिर कोई,
जन्म जन्मान्तरों वाली सगी है,
जो इतनी तन्मयता के साथ,
हमारी आवभगत में लगी है,
पहले पेश की,
रुई और टॉफ़ी,
और अब समय अनुसार,
नाश्ता, लंच, डिनर,
चाय और कॉफी।
वैसे तो इंडियन एयरलाइन्स,
एक सरकारी उपक्रम है,
लेकिन इसके सरकारी होने का,
हमें तो पूरा पूरा भ्रम है,
क्योंकि -
इस उड़ते हुए स्वर्ग की,
सेवा में कितना फर्क है,
नीचे का हर सरकारी दफ्तर,
तो नर्क ही नर्क है।
यहां चाहे हो,
' श्वेत ब्यूटी,
या श्याम ब्यूटी,
लेकिन सभी दे रहीं है,
मुस्तैदी से,
अपनी अपनी सेट ड्यूटी।
पास बैठे एक सज्जन ने,
सीट के ऊपर लगा,
लाल बटन दबाया,
टन्न की आवाज के साथ,
तुरन्त,
महकती मादक हवा का,
झोंका सा आया,
श्यामल ब्यूटी का स्वर उभरा -
यस प्लीज !
उसने कहा -
" सुनिये, स्वर्ग विमान की कनीज,
देखिये यहां सर्दी काफी है,
ऐसी सर्दी में हम तो जल्दी ही,
ठण्ड से मर जायेंगे। "
वह बोली -
' डरिये मत हम आपको,
मरने कहाँ देंगे,
तुरन्त एक कम्बल आपको उपलब्ध करायेंगे,
आपको हर हाल में बचायेंगे,
क्योंकि -
यदि आप मरे तो हम,
मुफ्त में बदनाम हो जायेंगे। '
यह सुन कर उसका अन्तर्मन,
चीखा चिल्लाया -
पता नहीं ये उड़न परियां,
कैसा जुल्म ढ़ातीं हैं,
दो दिलों के बीच बेजान,
कम्बल क्यों ले आतीं है?
हमने भी अपनी सीट के ऊपर का,
लाल बटन दबाया,
शीघ्र ही पुनः,
महकती हवा का झोंका आया,
हमने उपस्थित श्वेत सुन्दरी के,
हुश्नो शबाब में,
खुद को डूबता हुआ पाया,
उसने बार बार,
यस प्लीज, यस प्लीज दोहराया,
मैं तो उसे देखता ही रह गया,
उसके अनिंद्य रूप सौन्दर्य में खो गया,
जुबां से कुछ नहीं कह पाया।
उसने सोचा - हम बहरे हैं,
अतः थोड़ा अपना नाजुक हाथ लगाया,
हमें जगाया,
हमने तुरन्त फ़रमाया -
" सुनिये अजीज,
तुम तो स्वप्न परी हो,
फिर क्यों बनी हो कनीज ?
अरे हमारे संग चलो,
अपने दिल की महारानी बनायेंगे,
आपके नाज नखरे उठायेंगे,
पलकों पर बिठायेंगे,
जिन्दगी भर के लिये तुम्हारे,
हुक्म के गुलाम हो जायेंगे। "
कहने लगी -
'स्वप्न की बातें सच कहां होतीं हैं,
आप जैसे भी बहुत से आते हैं,
पर हम अपना सुख चैन नहीं खोतीं हैं।'
इधर हम अपनी कारगुजारी पर थे,
क्षुब्ध और खुद को रहे थे कोस,
हम पर हावी था रोष,
उधर हो गया,
यात्रा की समाप्ति का उद्घोष,
यद्यपि विमान से उतरने का,
मन तो नहीं होता था,
लेकिन क्या करें,
हमारे लिए उसका प्यार,
मात्र उसकी ड्यूटी, दिखावा था,
झूठा था, थोथा था।
यात्रा की समाप्ति पर,
विमान के गेट पर,
हाथ जोड़ कर,
जब नीचे जाने का,
रास्ता दिखाती है,
तब दिल में एक,
टीस सी चुभ जाती है,
और इतने अर्से के बाद,
आज भी रात की तन्हाई में,
जब उड़न परियों की यादें सतातीं हैं,
तो आँखें भर जातीं हैं।
अब तो कोई भी एयर लाइन,
डोमेस्टिक या इंटरनेशनल फ्लाइट में,
नहीं देती रुई और टॉफी,
इस सेवा की कमी की नहीं मांगती माफ़ी,
सारी की सारी हो गईं हैं, असंवेदनशील, बेदर्द,
यदि आपके कान में,
उडान के दौरान हो दर्द,
तो स्वयं मांग लो रुई और टॉफ़ी।
और अब हर सीट पर,
पहले से ही उपलब्ध होता है,
ऊनी दुशाला,
होता नहीं गड़बड़ झाला,
अब तो उड़नपरियां भी रह गईं हैं,
संख्या में आधी,
तो उड़ान की मस्ती भी रह गई आधी,
आधे आ गये हैं स्टीवर्ड्स यानी होस्ट,
जो लगते हैं घोस्ट,
इस तरह हर एयर लाइन ने बदल लिया है ट्रेन्ड,
अब इन्हें नहीं कहते उड़नपरी या उड़नपरा,
ये हैं अब फ्लाइट अटेन्डेन्ट।
यद्यपि हवाई यात्रायें बहुत बढ़ गई हैं,
और टिकट हैं पहते से बहुत सस्ती,
लेकिन अब नहीं रही वो पहले वाली मस्ती।
सच कहें -,
अब तो ऐसा महसूस होता है कि,
हर एयर लाइन की सेवा में कमी ही कमी है,
क्योंकि दिल के सुरक्षित कोने में,
पहली उड़नपरी की तस्वीर आज भी टंगी है !
हमने यह वृतान्त आपको,
आज इसलिये बताया है,
ताकि भविष्य में,
आप अपनी हवाई यात्रा के दौरान,
किसी मुगालते में ना रहें,
जो हमारे जैसे ग़म,
आपको भी उम्र भर सालते रहें।