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यह कली, कब खिली, कब पुष्प में परिणित हुई है,
देख सकुचाना तुम्हारा, भ्रमर समझें अनुछुई है,
भ्रमर को यह कब सुहाता, अनछुई रह जाए मलिका,
पुष्प बनना ही नियति है, ना लाख चाहे भले कलिका.
पुष्प, भंवरे का मिलन, सम्पन्न होने दीजिये,
कमनीयता, परिपूर्णता महसूस करने दीजिये ।

कसमसाती रह गई, यत्न भी भरसक किया पर,
कौन उसको रोकता, था वही उस का पिया घर,
भ्रमर के आगोश से फिर, क्या भला खुद को बचाती,
क्यूँ, कहाँ जाती छिटककर, जो बात उसको खुद सुहाती,
अनिद्य कमसिन रूप का, मधुमास चलने दीजिये,
कमनीयता, परिपूर्णता महसूस करने दीजिये.।

यदि भ्रमर की भांति ही, पुष्प भी गतिमान होता,
कसमसाहट पुष्प की का, ना किसी को भान होता,
जा सुरम्य घाटियों, झील, झरने व निपट एकांत में ही,
एक होने का महा सुख, महा उत्सव वहीँ होता.
चरमोत्कर्ष, वरदान उनको, अनमोल मिलने दीजिये,
कमनीयता, परिपूर्णता महसूस करने दीजिये ।

कसमसाहट की वजह हैं, लाज की कुछ बेड़ियाँ हीं,
रमणीक औ’ एकान्त में, उन्मुक्त हों अठखेलियाँ हीं,
एक लयता, एक रसता और तन्मय इन्द्रियां सब,
हों उमंगित, मन तरंगित, हृदय, तन की धमनियां हीं.
लाज की सब बेड़ियों को, ध्वस्त होने दीजिये,
दूर आओ हम चलें, एकांत मिलने दीजिये,
कमनीयता, परिपूर्णता महसूस करने दीजिये.।

प्रकृति के जो हैं नियम, उन को ना किंचित तोडिये,
स्वच्छंद बहती धार का रुख, नाहिं बिलकुल मोड़िये,
यह स्वयं इस सृष्टि के, हर अवयवों को जानती है,
अनुभवी हर संतुलन के, हर राज को पहचानती है.
हर जीव को, हर जीव से, सहयोग करने दीजिये,
आपसी सद्भाव से, हर जीव पलने दीजिये.
कमनीयता, परिपूर्णता महसूस करने दीजिये ।

यह प्रकृति का नियम है, जो निर्विघ्न ही चलता रहा है,
हर जीव का वंशानुगत क्रम, युगों युग मिलता रहा है,
बात लज्जा की नहीं यह, अत्यंत आवश्यक यही है,
स्वच्छंदता और सहजता से, हम इसे लें, तब सही है.
दो जीव से, नव जीव को, उत्पन्न होने दीजिये,
कमनीयता, परिपूर्णता महसूस करने दीजिये ।

भ्रमर, नर फूल के परागकण, मादा फूलों से मिलाता,
और फूलों के मकरन्द से, भूख फिर अपनी मिटाता,
परागण, पुष्पों के पराग का, सम्पन्न करने दीजिये,
भूख से व्याकुल भ्रमर को, मकरन्द मिलने दीजिये,
सहयोग दोनों का परस्पर, वंश चलने दीजिये,
पुष्प, भंवरे का मिलन, सम्पन्न होने दीजिये,
कमनीयता, परिपूर्णता महसूस करने दीजिये । 

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