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सच कहता हूँ -
अब तो तुम को, मुझ से बिलकुल प्यार नहीं है।
“तेरे इन आरोपों का, औचित्य नहीं, आधार नहीं है।“
सच कहता हूँ...
पहले जब मैं घर आता था, राह सदां तकती मिलती थी,
मुझे देख, मुरझाई कलिका, फूल के माफिक ही खिलती थी,
अब तो तू अपने बच्चों में, ही बस मस्त रहा करती है,
और ना तू मेरी बातों पर. अब कोई ध्यान दिया करती है।
क्या तेरा मेरे प्रति अब कुछ, दुश्मन सा व्यवहार नहीं है?
सच कहता हूँ...
अब तो तू अपने बच्चों पर ही, मैंने जान छिड़कती देखी,
मेरी बातें दरकिनार रख, मुझ पर बिलकुल ध्यान न देती,
मम इच्छाओं का क़त्ल करे, जब चाहे कर दे अनदेखी,
मैंने ऐसी कट्टरता, बर्बरता, हिटलर की भी सुनी, न देखी। "मुझको लगता तुमको अपने, बच्चों से भी प्यार नहीं है!”
सच कहता हूँ...
ऐकाकी जीवन जीने का, कष्ट मगर मैं तो सहता हूँ,
अब तो संग चलो तुम मेरे, हर पल ही तुम से कहता हूँ,
यह तेरा अपना शौहर है, दुश्मन या कोई गैर नहीं है,
“ऐसी बातें क्यों करते हो, मैं तो तेरी ही ब्याहता हूँ।”
फिर भी तो तेरी नज़रों में, मेरी कुछ औकात नहीं है!
सच कहता हूँ...
तुम क्या जानो, तेरे बिन मैं, कितना विचलित हो जाता हूँ,
अपना सब कुछ भूल भाल कर, बस तुझमें ही खो जाता हूँ,
दुख के इस माहौल, दौर में, ऐसे भी कुछ क्षण आते हैं,
जब तेरी यादों में बरबस, बच्चों जैसा रो जाता हूँ।
पर तुमको मेरे इस दुख का, बिल्कुल भी अहसास नहीं है!
सच कहता हूँ...
जब तक ये बच्चे छोटे थे, तब तक मैंने कहा नहीं कुछ,
अब तेरी ममता अंधी है, क्या करती महसूस नहीं कुछ,
वात्सल्य प्रेम में इतना डुबो, जब तक ममता की कीमत हो,
ममता ओछी या कमजोरी, ना समझें, उतनी सीमित हो।
मेरी इच्छा, आवश्यकता की, तुमको अब दरकार नहीं है!
सच कहता हूँ...
मैंने सोचा था, तेरे आने से, मेरा यह घर स्वर्ग बनेगा,
मेरे तन, मन, औ’ नयनों का, स्वर्गाश्रम, सुखधाम बनेगा,
लेकिन पता नहीं था, बच्चे पाकर, मेरे सुख से बैर रखोगी,
चार दिनों की दिखा चांदनी. बच्चों में ही व्यस्त रहोगी।
अब अपनों से, अपने घर में, अपनों सा व्यवहार नहीं है!
सच कहता हूँ...
अबला नारी जाति, प्रजाति, लुप्त हो गईं, जग से सारी?
मूक बधिर पशु नर दिखते हैं, जिधर भी देखे नजर हमारी,
पुरुष प्रधानता समाप्त हो गई, अब प्रधानता नारी की है,
जुल्म, सितम पत्नी के सहना, हुई विवशता पतिओं की है।
अब पति की नौकर से ज्यादा, घर में कुछ औकात नहीं है!
सच कहता हूँ...
संयम के बल पर ही नारी, पति को इतना सता रही है,
नर के बस उतावले पन का, भरपूर फायदा उठा रही है,
सौंप के बच्चा पति को बाकी, सबकुछ उससे करा रही है,
आज की नारी, संयम से ही, हरपल पति को रुला रही है।
सहानभूति नारी के संग है, नर की किसने सुनी या जानी?
सच कहता हूँ...
छद्म रूप, सौन्दर्य दिखा कर, सब कुछ ठग लेती है रानी,
युग युग से इतना रोया नर, कि सूख चुका नयनों का पानी,
बस एक शादी की गलती कर के, जीवन भर देता कुर्बानी,
पति आधुनिक गुलाम हो गया, है घर घर की यही कहानी।
पत्नी पालतू भक्त गुलाम से, ज्यादा औकात नहीं है!
सच कहता हूँ...
सच कहता हूँ -
अब तो तुम को, मुझ से बिलकुल प्यार नहीं है,
“तेरे इन आरोपों का, औचित्य नहीं, आधार नहीं है।“
सच कहता हूँ...