मैं हूँ लज्जा से वशीभूत, मुंह से ना कुछ कह पाती हूँ,

आँखों से कह देती या फिर, माध्यम श्रृंगार बनाती हूँ,
मैं अथक परिश्रम करती हूँ, हे प्रियतम तुम्हें रिझाने को,
तेरी इच्छा, आकांक्षा के, हर साँचे में ढल जाने को।
मन भाव प्रदर्शन का माध्यम, सोलह श्रृंगार बनाने दो!
प्रिय का आलिंगन पाने को, सोलह श्रृंगार रचाने दो!!

रुनझुन रुनझुन करती रहती, मेरे पांवों की यह पायल,
कंगना की खनखन कर जाये,आकर्षित,आतुर औ’ घायल,
मदहोश करे नयना मदिरा, मधुमय, मधुवन हो घर आँगन,
अपनत्व, प्यार से महक भरा, हो स्वर्ग समान मेरा उपवन।
आतुर भंवरे को, मेरे ही, बस आस पास मडराने दो!
प्रिय का आलिंगन पाने को, सोलह श्रृंगार रचाने दो!!

अधरों की लाली कर देगी, लालायित मेरे प्रियतम को,
नखपालिश की यह चमक दमक, दीवाना कर देगी उनको,
मुझ को महावर से पैरों की, रंगत कुछ और बढ़ाने दो,
मेहँदी से रचे इन हाथों को, स्पर्श, प्यार मिल जाने दो।
कुछ रूज लगा कर गालों को, सेवों सा सुर्ख बनाने दो!
प्रिय का आलिंगन पाने को, सोलह श्रृंगार रचाने दो!!

परिधान तुम्हें जो भाते हैं, वो मैंने चुन चुन कर पहने,
अपनी अतृप्त पिपासा को, लज्जा के पहनाये गहने,
तुम रूप की रानी कहते हो, मैं तुमको लगती सर्वोत्तम,
तुम ना देखो तो बढ जाये, अनभिज्ञ व्यथा का कोई गम।
तन मन मेरा मनुहार करे, आनंदित क्षण मिल जाने दो!
प्रिय का आलिंगन पाने को, सोलह श्रृंगार रचाने दो!!

सानिध्य तुम्हारा पा कर मैं, हुई तृप्त बहुत, मिटी भटकन,
कहाँ चली गई युगयुग की वह, यौवन की पोरपोर चटकन,
पर रोग नया एक मुझे लगा, अब हर क्षण यही पिपासा है,
हर पल मधुमय स्पर्श मिले, यह रग रग की अभिलाषा है।
उन अल्प क्षणों की यादगार, चिर जीवित पुनः बनाने दो!
प्रिय का आलिंगन पाने को, सोलह श्रृंगार रचाने दो!!

अब तेरे मात्र ख्यालों से, बढ़ जाती है दिल की धड़कन,
पाषण बनीं इन बाँहों में, संचारित अनुपम सी फडकन,
नित नव स्मृति के दर्पण में, प्रतिबिम्ब तेरे छा जाते हैं,
तेरी चाहत के हर सपने, फिर मेरी चाहत बन जाते हैं।
वेणी में गूंथे गजरों से, ये नभ, जल, थल महकाने दो!
प्रिय का आलिंगन पाने को, सोलह श्रृंगार रचाने दो!!

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