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आज विश्व के हर चप्पे पर, कहर कोरोना का जारी है,
मानव के झूठे प्रभुत्व पर, अदृश्य विषाणु एक भारी है,
कर्फ्यू से हालात हो गये, वीरान शहर और सूनी सडकें,
वो सब कैद हुए खुद घर में, जान जिन्हें अपनी प्यारी है ।

हम ने काट के जंगल, कंक्रीट के जंगल खड़े किये हैं,
बढती गर्मी सिद्ध करे, प्रकृति पर, बहु अन्याय किये हैं,
सब जीव, वनस्पति, इन्सानों के, हक, अधिकार बराबर,
लेकिन मानव करता सब पर, बहु अत्याचार सरासर ।

कहीं कोई बगिया के तन्दूर में, नारी पका रहा है,
स्वाद क्षुदा, कोई गटर के कीड़ों, से ही बुझा रहा है,
जो कुछ भी मिल जाए, उस को कच्चा ही खा जाये,
साँप, नेवले, चमकादढ तक को, खाकर शान दिखाये ।

प्रकृति हमारी आवश्यकताएँ, पूरी करने में सक्षम है,
लेकिन तृष्णा, धन, स्वाद की, पूरी करने में अक्षम है ,
प्राकृतिक सह अस्तित्व, संतुलन, कैसे खो जाने दे ?
कैसे, कब तकऔर क्यूँ मानव की, मनमानी होने दे ?

'सृष्टि की उत्कृष्ट कृति हूँ ', मनुज दम्भ, चकनाचूर किया है,
और नाक, मुंह ढककर रखने पर, सबको मजबूर किया है,
खुले आम, क्रूरता, बर्बरता पर, अब अंकुश लगा दिया है,
खौफ से मानव ने खुद को अब, घर में कैद किया है ।

खुद को खुदा समझने वाला, हतप्रभ बना खडा है मानव,
इक अदना सा अदृश्य वायरस, सबको लीले बनके दानव,
कैसे उस से जंग लडें हम , और कैसे उसको मार भगायें ?
डर से, घर में छिप के उससे, कब तक अपनी जान बचायें ?

तीर कमान, तोप, मिसाइल, विध्वंशक सब बम परमाणु,
बन कबाड़ बेकार पडे हैं, सम्मुख अब एक अदृश्य विषाणु,
त्राहि त्राहि हर ओर मची है, जब सक्रिय सिर्फ एक विषाणु,
भरे प्रकृति के तरकश में, कोटि कोटि अनगिनत विषाणु ।

संदेश यही है आज सृष्टि का, '' हे मानव मत आग से खेलो,
जितने चाहो उतने ही सुख, सहयोग करो, सृष्टि से ले लो,
वरना मेरे दिये जख्म से, तुझ को ना कोई मुक्ति मिलेगी,
ऐसी मुझ पर बहुत युक्ति हैं, फिर नई कोई मुहिम चलेगी ।

केवल इक अदृश्य वायरस ने, तेरी क्या औकात बता दी,
मैंने तुझे को आज सजा दी, तेरी हर अक्षम्य खता की,
अब तक जो भी देखा तुमने, यह तो केवल एक झांकी है,
सुधर जाओ वरना तुम देखो, पूरी फिल्म अभी बाकी है ।''

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