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तुम्हें पता क्या ? आज शहर में,
कैसा कैसा काम हो गया,
खुले आम, चलती सडकों पर,
दिन में, कत्ले आम हो गया।

मरियल, दुबला, पलता, कातिल,
और छरछरी जिस की काया,
पता नहीं किस ने दी उस को,
सम्मोहन की अद्भुत माया,
उस की रूप चाॅदनी ने तो,
चांद, सूर्य सा ग्रहण ना पाया,
ऐसा लगता, नार भेष धर,
ईश्वर खुद धरती पर आया,
जिधर जिधर से भी वो गुजरा,
सारा ट्रैफिक जाम हो गया,
थाने वाला बहुत परेशां,
क्षेत्र बहुत बदनाम हो गया।
खुले आम, चलती सडकों पर,
दिन में, कत्ले आम हो गया।

ढूंढ रहे सब उस कातिल को,
पर रपट नहीं कोई लिखवाये,
मुझे बता दो, हुश्न के मारे,
कभी पुनः धरती पर आये?
देखो अपने आजू बाजू घर में,
छिपे ना बैठे हों चिलमन में,
पर्दे, बुर्के या घूंघट में,
फूलों के उपवन, जमघट में,
जिसको उसकी झलक मिली,
उसका काम तमाम हो गया,
मर के भटक रहे हैं आशिक,
भंवरा जिनका नाम हो गया।
खुले आम, चलती सडकों पर,
दिन में, कत्ले आम हो गया।

अपनी मस्ती, अपनी धुन में,
रोजाना जिस पथ जाता था,
टेडी मेडी राहों पर भी,
बस सीधा चलना भाता था,
पांव कहां फिसला था मेरा,
नजर ना जाने कैसे फिसली,
शायद उन के आकर्षण ने,
अपहृत की, चीख न निकली,
उनके हुश्न, अदा का कांटा,
सीधा दिल के पार हो गया,
बेफिक्री से जीने वालों का,
ये कैसा अन्जाम हो गया।
खुले आम, चलती सडकों पर,
दिन में, कत्ले आम हो गया।

अब तो सडकों पर चलना भी,
रहा नहीं है यहां सुरक्षित,
एक हुश्न की 'लेन', यहां पर,
करवा दीजे अब आरक्षित,
गली, मौहल्ले, चौराहों पर,
जगह जगह इतना लिखवादो -
“क्षेत्र हुश्न का आरक्षित यह",
अखबारों में भी छपवा दो।
सडकों पर मरने वालों का,
कितना ऊंचा ग्राफ हो गया,
ऐसे ठोस कदम लेना भी,
अब कितना अनिवार्य हो गया,
सडकों को आरक्षित करना भी,
अब सरकारी काम हो गया।
खुले आम, चलती सडकों पर,
दिन में, कत्ले आम हो गया।

तुम्हें पता है? आज शहर में,
कैसा कैसा जुल्म हो गया,
खुले आम, चलती सडकों पर,
दिन में, कत्ले आम हो गया।

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