हम सब अन्धे, बहरे, पागल, सब को, मस्ती सूझ रही है,
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

छोटे, मोटे नहीं यहाँ पर, खतरे लाखों बड़े बड़े हैं,
जल, थल, नभ क्या अंतरिक्ष तक, महाप्रदूषण दैत्य खड़े हैं,
हर टोली ही घात लगा कर, यमदूत बनी खुद घूम रही है ।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

क्लोरोफ्लोरोकार्बन से, ओज़ोन परत का, क्षरण हो रहा,
घातक विकरण से हर पल, बहु जीवों का मरण हो रहा,
सोचो अपनों को खोने से, इस पर क्या कुछ बीत रही है ।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

प्राण वायु की चादर इस की, जंगल कटने से छीजी है,
पगली मान के स्व नाकामी, केवल अपने पर खीजी है,
कैसे सबको जिन्दा रक्खे, माँ की ममता सिसक रही है ।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

नदी, सरोवर सूख रहे हैं, और भू जल का दोहन है भारी,
पर ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ की, ना कोई उठाता जिम्मेदारी,
कैसे सब की प्यास बुझाये, व्याकुल दर दर बिलख रही है ।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

सहअस्तित्व, संतुलन के संग, सब को देती आई पोषण,
पर बदले में हम ने इस पर, ढाये जुल्म, किया है शोषण,
अपनी "अर्थ" बेचारी बेवश, कितने अनर्थ, झेल रही है।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

ग्लोबल वार्मिंग छोटी बात नहीं, व्यापक घोर भयावहता है,
विश्व के हर समुद्री तट को, करें सुरक्षित, आवश्यकता है,
पृथ्वी माँ, दूरदृष्टि से, महाप्रलय के, सारे मंजर देख रही है ।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

नग्न धरा, वाहन, कल, दीवाली, पराली, बहु नासूर थे पहले,
अब लाखों टन बारूद बरसते देख, बेचारी का दिल दहले,
अब परमाणु युद्ध के डर से, रह रह, थर थर कांप रही है ।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

यहां दरकते पर्वत, वहां तटों पर, तूफानी शैतान खड़े हैं,
विशालकाय भवनों के नीचे, कितने लाशों के ढेर पड़े हैं,
अपनी कारिस्तानी, नादानी ही, खून के आंसू रुला रही है।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

डरती है ये दुखों की अग्नि, कहीं न लावा बन कर बह ले,
या भूकम्पों की थर्राहट से, दुनियां का चप्पा चप्पा दहले,
दिखा दिखा कर ट्रेलर, तेवर, हार स्वयं ही मान चुकी है ।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

कुछ तो शर्म करो बेशर्मो, ज़रा झांक गिरेबां खुद का देखो,
सभी प्रदूषण बन्द करो अब, मत कोई इसके जख्म कुरेदो,
अपने सब दुख, दर्द और पीड़ा, ये हम से भी छुपा रही है।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

बर्बादी लख कहती पृथ्वी, मन करता है, खुलकर रो लूं,
इन पथराई आँखों को, अब कैसे बन्द करूं औ' सो लूं ?
रह रह कर, सूखी पलकें, दर्द से असफल मींच रही है,
औ' खुद दर्द से जनित कराहें, बस होठों में भींच रही है।
तुम्हें पता क्या, अपनी पृथ्वी, किन खतरों से जूझ रही है ?

हम सब अन्धे, बहरे, पागल, सब को, मस्ती सूझ रही है,
पर पृथ्वी, सृष्टि और हमारा, अस्तित्व बचाने जूझ रही है।
माँ तो आखिर माँ होती है, कर्तव्य स्वयं के निभा रही है !
अस्तित्व स्वयं का लगा दांवपर, हम सबको बचा रही है !!

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