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गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -

विधि हरि हर जाको ध्यान करत है,
मुनिजन सहस अठासी।
सोये हंस तेरे घट माहीं
अलख पुरुष अविनाशी।।

नहीं! मैं भगवान तो नहीं हूँ, परंतु भगवान बनने की अपार संभावनाएं मुझमे विद्यमान हैं। मैं उस तक पहुँचू कि नहीं पहुँचू यह मेरे उपर निर्भर करता है। जैसे की एक बीज में अपार क्षमताएँ होती है की वह फल दे, जिसके लिए उसे एक लंबी और निरंतर बदलती हुई प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अगर वह सारी निरंतर बदलती हुई प्रक्रियाओं मे सफल होता है तभी वह फल दे सकता है। यह ज़रूरी नहीं की हर बीज फल ही दे, बहुत से बीज तो इसी प्रक्रिया मे ही नष्ट हो जाते हैं।

कहते हैं कि भगवान तो कण-कण में वास करते हैं, प्रत्येक मनुष्य के अंदर वास करते हैं। यदि ज़रूरत है तो बस मनुष्य को स्वयं के भीतर झांकने की, स्वयं को पहचानने की, वहाँ तक पहुँचने की, स्वयं को एक बीज से एक स्वादिष्ट फल में परिवर्तित करने की।

बहुत से मनुष्य कण-कण से गलत अर्थ लेते हैं। उन्हे लगता है कि भगवान मानव द्वारा भी बनाई गई चोज़ो जैसे टेबल, बेंच, जूते चप्पल हर चीज़ मे वास करते हैं। यहाँ कण-कण का अर्थ है हर छोटी से छोटी जीवित आत्मा मे भगवान का वास है, जिनका जन्म प्राकृतिक तरीके से हुआ है, जो प्रकृति है, वह मनुष्य से लेकर एक छोटे से बैटेरिय मे भी है। मानव द्वारा निर्मित चीजों मे भगवान के वास की बात नहीं कही गई है।

भगवान क्या है?

भगवान का अर्थ मात्र यह नहीं की वह एक ऐसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष आत्मा है जो कि नश्वर है, जिसके अंदर अपार शक्तियां विद्यमान, जो जैसे चाहे मनुष्य जीवन को बना सके। भगवान तो एक सकरात्मक ऊर्जा का वह केंद्र है जो इस संसार को चला रहा है। वह तो हर मनुष्य के भीतर विद्यमान है, उसके साथ है। हर वह मनुष्य जो स्वयं को पहचान ले, धरती पर अपने जन्म का कारण पहचान ले, हमेशा सत्य के साथ खड़े होने और असत्य तथा गलत का पूरे साहस के साथ सामना करने की क्षमता रखे, साहस रखे, वह ही भगवान है। प्रत्येक मनुष्य अपने कर्म मात्र से ही भगवान तुल्य भी बन सकता है तथा दानव तुल्य भी, यह मनुष्य के उपर ही निर्भर करता है की वह अपने जीवन मे क्या चुनता है।

इसका एक मात्र उदाहरण पुराने समय के ऋषिमुनि भी है। महर्षि अगस्त्य, ऋषि दुर्वासा, गौतम बुद्ध, और भी न जाने कितने मनुष्य ही थे जिनके कर्म मात्र से ही उन्हे हमने भगवान का दर्जा दिया। महर्षि अगस्त्य को तो भगवान से भी सर्वोपरि माना गया। वह सदैव सत्य के साथ खड़े रहे तथा हमेशा सही और अच्छे कर्म किये। साई बाबा की पूज लोग बड़े क्रम में करने जाते है, लोगो का विश्वास है उनपर, उनके कर्म, उनके ज्ञान तथा उनके जीवन नियम पर।

गीता में श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को ज्ञान देते समय कहा था कि भगवान तो हर उस मनुष्य के साथ हर घड़ी मे है जो मनुष्य सदैव सत्य के साथ खड़ा रहा है।

कबीर दास जी ने कहा है -

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि।
सब अंधियारा मिटी गया, जब दीपक देख्या माहिं।।

जब तक स्वयं के शाश्वत होने का भाव रहता है, मैं (अहम) रहता है, इस संसार को वास्तविक समझने का भान रहता है, तब तक हरि का आभास नहीं हो पाता। अहम को समाप्त करने के उपरांत ही ईश्वर रूपी दीपक के उजाले का ज्ञान होता है जिससे सारा अंधकार मिट जाता है।

भगवान तो सदैव दूसरो के लिए जीते हैं, सदैव दूसरो के लिए तत्पर रहते हैं, उनके निश्छल प्रेम मात्र से ही हमारा जीवन सफल हो जाता है। अतः जो मनुष्य सदैव दूसरो के लिए उपस्थित रहता है, जिसके मन मे छल कपट न होकर निश्छल प्रेम हो, जो सदैव खुद का स्वार्थ छोड़कर दूसरो के बारे मे सोचे, दूसरो की भलाई के बारे मे सोचे और वही करे, वह ईश्वर समान है।

भगवान का अस्तित्व क्या है?

इस संसार मे जहाँ-जहाँ भगवान हैं, वहाँ प्रगति तथा अनुभव है। भगवान प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक सकरात्मक उर्जा, एक शक्ति के रूप मे वास करते हैं जो की मनुष्य को सदैव आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।

दुनिया में सुख-दुःख का अनुभव होना, विकास होना, प्रत्येक जीव के अंदर एक प्रेम, घृणा, क्रोध आदि की भावना होना, इस बात का उदाहरण है की भगवान का अस्तित्व उस जीव के अंदर ही है। यदि भगवान न होते तो हमे इन भावनाओ का कोई अनुभव नहीं होता।

भगवान का कोई शरीर नहीं होता, वह इंसान, जानवर , पेड़, पौधे किसी भी माध्यम से हमें मिल सकते हैं, यदि हम खुद को उस काबिल बनाये, अपने भीतर सबके प्रति प्रेम भावना रखे तो हमें भी हर प्राकृतिक जीवन में भगवान मिलेंगे।

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

अर्थात - जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूं। जब जब अधर्म बढ़ता है तब तब मैं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं।

जब जब धरती पर पाप बढ़ा, जब जब धर्म पर आँच आई, तब तब भगवान ने किसी न किसी रूप मे जन्म लिया और धरती का उद्धार किया। मनुष्य जब जैसे कर्म करता है, उसके उपरांत उसे अपने कर्म का फल अवश्य मिलता है, अच्छे कर्म से अच्छा और बुरे कर्म से बुरा, सब उसे मिलता है, यह भी तो ईश्वर के होने का ही प्रतीक है। वह किसी के साथ अन्याय नहीं करता, वह तो सबका है, सबके लिए जीता है। मनुष्य को कर्मा मिलता है, क्युंकि भगवान का अस्तित्व है, उसके कर्मों के आधार पर उसका जीवन यापन होता है, क्युंकि भगवान का अस्तित्व है।

हम भगवान को सदैब बाहर के जीवन में तलाशते हैं, अपनी बाहरी आँखों से संसार में भगवान को ढूंढते हैं और फिर भगवान के न मिलने की शिकायत भी करते हैं। हमने स्वयं के अंदर झांकने का तो प्रयास ही नहीं किया, स्वयं के मन की आँखों से तो भगवान को कभी ढूँढा ही नहीं। हमें तो भगवान को स्वयं के भीतर महसूस करने की आवश्यकता है। हमारी शुद्ध आत्मा ही भगवान है। वह प्रत्येक मनुष्य में समान रूप से है।

भगवान श्री कृष्ण ने साफ शब्दों में स्पष्ट किया है -

"जो आप अपनी आँखों से देख सकते हैं, वह भगवान नही हैं। जिसको आप भगवान के रूप में संदर्भित करते हैं, वह तो नश्वर है; भगवान यह शरीर नहीं है, शरीर तो केवल बाहरी आवरण है जो अस्थाई है और एक समय के बाद नष्ट हो जाता है। वह जो भीतर है, जो शाश्वत तत्व के रूप में रहते हैं, जो हमारे शुद्ध आत्मा में विराजमान हैं, वह परमात्मा है- जिसे हम भगवान कहते हैं।"

आत्मा प्रत्येक जीव के भीतर एक शाश्वत, शुद्ध तथा छल कपट से दूर एक मात्र तत्व है, अतः इसी में ईश्वर का वास है, शुद्ध आत्मा को ही भगवान माना गया है। 

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