आज पुश्तों बाद जन्म हुआ है
एक गुड़िया का।
घर में खुशियो की है दीपिका जागी,
गांव में है खुशहाली छाई,
चिंटू-पिंटू की बहन है आई,
चिंटू भी अब इठलाएगा।
पिंटू अब सारे पुष्प तोड़ लाएगा।
दादी और पापा ने तो
आंसू है छलका दिए।
काका श्री ने तो कमलों से है घर सजा दिए।
माताजी ने भी अब है देख लिया
बोली चिंटू के पापा -- यह तो आप पर है गई
पापा के लोचन है कहते -- सही कहती हो भाग्यवान
आज तो महोत्सव है घर में
चिंटू-पिंटू की बहन का है प्रवेश हुआ
काजू-कतली, बर्फी, खाजा, सोन-पापड़ी,
की है खुशबू महकी।
किन्नरों का है हुजूम लगा,
लगे देने बधाइयों का ढेर।
मैंने भी उठाया उसे
और कहा सोना
चिंटू के पापा ने कहा-
मुझे अब सोना के पापा ही कहना।
समय बीतते पल नहीं लगता
दस ऋतुओं पश्चात,
हो गई सोना दस वर्ष की।
आई प्रथम अपनी कक्षा में
मिला भाइयों और पापा का प्यार।
अब बड़ी हो चली है सोना
और बनना चाहती है वकील।
मगर आज पहुंचा वहां एक शिकारी
धर एक परिवार का रूप
जो लड़की को समझते एटीएम कार्ड,
और पिता के घर को एटीएम मशीन।
करते वह सबसे मीठी सी बात
कहते बेटा इंजीनियर है मेरा
और कमाता है लाखों में
घर है संपन्न हमारा चाहिए
बस, एक लड़की आपकी
पिता ने सोचा हो सकता नहीं
रिश्ता अच्छा इससे।
सोना अपने पिता की करने पूरी इच्छा
दिया छोड़ सपना अपना।
जिसे उसने बचपन से रखा था सोच
सोना ने पढ़ा था कहीं 'प्रणय नीव है परिणय की'।
इसी सिद्धांत के साथ किया प्रवेश
विवाह मंडप में;
सोचा एक मित्र को देखूंगी अपने साथी में।
तब तक मौका देख
ले जाकर कोने में,
लड़के के पिता ने की दस लाख की मांग।
सोना के पिता चकित होकर बोले-
पहले तो आपने कुछ कहा नहीं था
लड़के के पिता बोले-
यह तो आपकी लड़की के लिए है,
है ही क्या मेरा इसमे?
जल्दी करिए वरना
मुश्किल होगा विवाह करना।
सोना के पिता, सोना की खातिर
रख दिया गिरवी घर अपना
हुआ विवाह
पहुंची ससुराल सोना।
कुछ हफ्ते चला सब कुछ ठीक,
फिर लड़के ने बोला- चाहिए मुझे एक मसिर्डिज
सोना जान चुकी थी पिता की मुश्किलें,
सोना ने कर दिया इनकार,
फिर देखा वह रूप अपने पति का
जिसकी निशान थे मौजूद उसकी पीठ पर।
उसने तोड़ दिया आत्मविश्वास और विश्वास उसका,
जो वह अपने संग लायी किसी रात।
सोना ने बात को था दबा दिया,
और पी लिया आंसू अपने पिता के लिए।
लेकिन वह भूल गई थी,
लोगों की आदत बदल सकती है
लेकिन फितरत नहीं।
लड़के ने इस बार की थी सारी सीमाएं लांघ।
सोना को बंद कर, दिया जला कमरे में।
सभी देख रहे थे तमाशा उसका,
उसकी चीखें दबी रह गई उसी कमरे में।
जिसमे बनकर आई थी,
वह बहू।
आए पिता सोना के,
समझ गए वह करनी सबकी,
दिया भून गोलियों से सबको।
लिया बदला अपनी सोना का।
अश्रु धारा है निकलते उनके लोचन से
याद करते वह दस वर्ष की सोना
जब आती वह अपनी उपलब्धियाँ दिखाने
और कहती- 'पिताजी ये देखिए'।
मैं भी पहुंचा वही
कहते सोना के पिता-
हे, कवि मित्र काश बन जाने दिया होता,
मैंने वकील सोना को,
तो न निकल रहा होता
पस उसके शरीर से।
चिंटू और पिंटू याद करते
अपनी उस चलती उछती कूदती
सोना को और राखी के बंधन को,
जिसे बांधने के बाद,
वह बहुत प्यार से लड्डू मांगा करती थी।