Photo by Roman Nguyen on Unsplash

अन्न हूं मैं, मुझे यूं न व्यर्थ कर 
हे मनुज
मैं वह तत्व हूं जिसके परोक्ष 
जग है भागता नित्य।
भागते हैं मनुष्य करते अथक प्रयास,
पाने एक टुकड़े को।
कदाचित तुम परिचित नहीं हो 
भूख के,
भूख की अनुभूति होती 
तब जब जठराग्नि है कचोटती
 पेट के चर्म को।
बिना कुछ किए होती पीड़ा,
चर्म के आवरण के भीतर।
तुमने देखी नहीं है भूख
अफ्रीका की। 
अन्यथा पूजते तुम उस अन्न को 
जो तुम फेंक दिया करते हो यूं।
अफ्रीका में सूरज उगता नहीं 
जलाता है, वहां की धरती।
बंजर जमीन, सूखे कुएं,
अनिश्चित सीमा तक फैले मरुस्थल,
न खेती की जमी,
न उगाने के लिए धन,
बस इस्लाम की रक्षा के नाम पर 
आतंक का राज।
'बोको हरम' की बंदूकें,
गोलियों का काया को
छन्नी में परिवर्तित करना।
अज्ञानता का काला 'तम',
जादू टोने का अंधविश्वास,
निगलता समग्र महाद्वीप को।
 भूख और बीमारी से,
 बिलखते बच्चे।
केवल एक रोटी के लिए, 
काटते गले लोगों के।
जब नीर न देती दर्शन,
 प्यास बुझाने को
पीते है रक्त गौ के। 
परंतु कुछ को यह बात
आती नहीं समझ,
क्योंकि केवल अपना हित
 साधने में लगे रहते सब।
यूरोप की करनी और भू-राजनीति
करती विध्वंस अफ्रीका की जीवनी।
सैकड़ों सालों तक बना 
रखा गुलाम किया शोषण,
शारीरिक और मानसिक।
लिया लूट पूरे अफ्रीका को, 
छोड़ा एक न दाना
थोड़ा भी पेट भरने को।
किंतु है विश्वास मुझे
उन लोगों पर
जिन्होंने सहस्र वर्षो तक सही पीड़ा 
होंगे अज्ञानता से दूर एक दिन
क्योंकि
व्यक्तिगत आभास 
सब अज्ञानता को है
पलटता ज्ञान में।

.    .    .

Discus