खेतिहर जोत कर रखता है, खेत अपनी उम्मीद से।
नित्य परिश्रम करता है वो,एक बारिश की आस में।
आँखें एक बूँद को तरसती, सारी सारी दुपहरिया।
फिर भी एक बूँद न गिरती, सारी सारी घड़ियां।
किन्तु कृषक न आस खोता है, हर दिन एक संघर्ष होता है ।
बदरी और किसान, होते एक मित्र समान।
बदरी आना-कानी करता है, दर्शन जल्दी न देता है।
किसान एक मुस्कान लिए, अम्बर को चुनौती देता है।
कहता है तू कब तक न बरसेगा, मैं हूँ यहीं दृढ़ संकल्प लिए।
जब काया साथ न देती है, फिर भी वो प्रयत्न करता है।
जब सरकार कर्ज चढ़ाती है, उसकी आर्थिक कमर जाती है टूट।
फटे वसन को छिपा बच्चों से, करता वादे ऊँचे मकानों के।
किसान उगाता अन्न जब, जाता तब वो देश के उदर में।
यहां किसान ही बेहाल पड़ा, है नहीं किसी को कोई फ़िकर।
हो महाराष्ट्र, बुंदेल, कच्छ, कालाहांडी हो या कोई प्रदेश।
ऐसा कोई ठिकाना नहीं, जहां किसान का ये हाल नहीं।
फिर भी वो सब कुछ सहता है, बस इक बूँद की आस में। |
बस इसी आस में की, ठीक होगा सब एक दिन।
आखिर मित्र का कष्ट हर लेने को, उसका चरण छू लेने को।
वह घुमक्कड़ धरित्री पर बरसता है।
कृषक अपना दर्द भूल, मित्र का स्वागत करता है।
वह हर्ष एवं उल्लास सहित, तृणो के संग झूमता है।
किन्तु होगा हर बार न यह, हम सब जानते है इसको।
क्या हमारा होई कर्त्तव्य नहीं? यही सोचना है हमको।