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भगवान पहुंचते पास कर्ण के
करता वह उन्हें प्रणाम।
पार्थ का सारथी बनने से पूर्व,
वह बने थे सारथी उसके।
तरू के नीचे वार्ता होती आरंभ,
भगवान करते एक प्रयास बचाने
एक दानवीर का प्राण।
प्रकट करते वह कुंती देवी की भूतपूर्व विवशता।
समझाते वह कर्ण को
नहीं था अपराध कुंती बुआ का,
समाज के क्रूर नियमों के चलते
हुआ था यह अलगाव।
कहते श्रीकृष्ण तुम छोड़ दो
अधर्मी दुर्योधन का पाला
और साथ चलो मेरे
देता हूं वचन मैं, करेंगे तुम्हारे
अनुज तुम्हारा सत्कार
और मिलेगा तुम्हें तुम्हारा खोया सम्मान।
वह कोसता कृष्ण को
उसका मन उद्वेलित करने को।
वह कहता आपने किस जन्म का
लिया बदला मुझे यह बतलाकर
लक्ष्यहीन दिया है कर, मुझे आपने
अब किस हृदय से करूंगा सामना
मैं अपने सबसे बड़े शत्रु अर्जुन से?
कैसे मैं उतरूंगा रणभूमि में
अपने अनुजों का करने वध?
है नहीं लालसा किसी सिंहासन की मुझे
मेरा युधिष्ठिर ही है सिंहासन के योग्य।
किस चेष्टा से मैं दुर्योधन का साथ दूं छोड़
हां मानता हूं मैं,
निहित है स्वार्थ उसका, किंतु
जब सबने दिया था साथ छोड़,
तब उसने लिया था हाथ पकड़।
बनाया अंग देश का राजा मुझे,
और दिया सम्मान एक सूत पुत्र को।
किस माता की करते हैं बात आप,
जो छोड़ गई मुझे सरिता के वेगो के साथ।
हे कृष्ण किस दुविधा में है
डाल दिया मुझे,
मैं जानता हूं विश्वव्यापी, है आप तो
पांडवों की विजय है निश्चित है।
हे दीनबंधु, मैं जानता हूं
कि निश्चित है मृत्य मेरी,
परंतु कर सकता न मैं
दुर्योधन का परित्याग।
एक वचन की आशा करता मैं
न बतलाए आप, अनुजो को
मेरा लंबित परिचय।
जब हो जाऊँ वीरगति को प्राप्त,
तब बतलाए कि था 'एक कर्ण'।