Photo by Joel Muniz on Unsplash
नारी में है वह तप, जिससे
जन्म होता मनुष्य नमक जाति का।
नारी अबला न थी
उसे अबला बना दिया गया।
किंतु वह थी सबल सदैव भीतर से।
केवल एक चिंगारी मात्रा की
थी आवश्यकता।
उस चिंगारी का नाम है--
चेतना-जागृति।
चेतना?
चेतना का अर्थ है--
चैतन्य हो जाने से,
ब्रह्म को समझ जाने से।
किंतु स्त्रियों को केवल
वस्तु मान लिया गया सज्जा का।
नारी एक वस्तु नहीं,
जिसे सजाया जाए।
नारी वह संरचना है,
जिससे केवल
प्रेम किया जाना चाहिए।
प्रेम उसके तर्क से,
उसकी शालीनता से।
प्रेम उसके आत्मविश्वास से,
इसकी गहनता से।
प्रेम उसके ओज से,
उसकी प्रबुद्धता से।
प्रेम उसके ढंग से,
उसकी करूणा से।
प्रेम उसके कौशल से,
उसकी सजीवता से।
और
सुंदरता स्त्री के केश में नहीं,
है नेत्रों की अग्नि में।
ओज स्त्री के लोचनो में नहीं,
है आत्मविश्वास की ज्वाला में।
सशक्तता नारी के वस्त्र में नहीं,
है उसके गुणो में।
नारी की स्वतंत्रता वस्तु के क्रय-विक्रय में नहीं,
है उसका स्वावलंबी होने में।
वृद्धि स्त्री की आभूषणों से नहीं,
है मानसिक उत्थान में।
आकर्षण स्त्री की नग्नता में नहीं,
है उसके संचालन में।
स्त्री को पुनः जीवित होना होगा।
अपने वास्तविक स्वरूप को
पहचानना होगा।
जिस प्रकार माता सती ने किया
था अपना वास्तविक रूप जानकर।
और यह केवल
स्त्री स्वयं कर सकती हैं;
ज्ञान को समझ कर,
वास्तविकता को जानकर,
आध्यात्मिक को पकड़कर।
तो उठो हे! स्त्री
छू लो अपनी सर्वोत्तम ऊंचाई को।
और बनो पुनः परमात्मा की सर्वोत्तम संरचना।