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पांच हजार वर्ष पूर्व 
जब मानव ने समझ पाई थी। 
परिवार की इकाई ने 
जब लिया था जन्म।
जनजातियां सब एकत्र हुई,
समाज का था रूप लिया।
वर्चस्व की प्रवृत्ति ने
मानव को मानव से लड़वाया।
जनजातियां हुई जब और सबल, 
सभ्यता वहीं सभंलाई थी।

सिंधु घाटी का नाम धर 
वह पर्दे पर आई थी।
मोहनजोदड़ो ने भी था 
दर्ज करवाया अपना नाम। 
व्यवस्थाएं थी सब एकदम सुउचित।
जो करती आज भी स्तब्ध।
प्राकृतिक आपदा ने,
एक दिन था सब नष्ट किया। 

किन्तु, 
मानवों ने मानी ना हार।
हुए एकजुट फिर एक बार।
किया परिश्रम फिर जोड़-तोड़,
बढ़ाया अपना आध्यात्मिक और तकनीकी ज्ञान।
हुई वेदों और पुराणों की रचनाएं।
समाज के सुसंचालन में,
किया 'वर्ण व्यवस्था' का अनुसंधान। 
हुए लोग विभक्ति अपने कर्मों के चुनाव से।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
है कर्मों के अनुसार विभाजन।
किंतु शक्ति के संकेंद्रण से,
उत्पन्न होती 'लालसा'।
लालता से 'एकाधिकार' के भाव की
होती है व्युत्पत्ति।
एकाधिकार जन्म देता 
एक अनिच्छित 'शोषण' के काल को।

एक वर्ग का दूसरे से 
श्रेष्ठता का भाव।
खोदता एक खाई को,
खाई 'असमानता' की।
शिक्षा और शास्त्र रहे जाते,
पास एक निश्चित वर्ग के।
सामंतवाद जन्म देता,
सामाजिक अंधकार के युग को।
सड़ जाती एक सुयोग,
विचार की परिकल्पना। 

छुआछूत नामक महामारी
निगल जाती,
शिक्षा के वृहद विस्तार को।
वर्ण की अवधारणा को है
लग जाता दीमक।
जाति व्यवस्था का काला रूप 
आता समक्ष पूरे समाज के। 
वर्ण से आरंभ हो,
जाति तक का अकल्पित सत्य।
करना होगा अब हमें धूमिल...
करना होगा अब हमें धूमिल...

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