Photo by Syed Aoun Abbas on Unsplash

आदमी की करनी ने
कहीं का है कहीं किया।

कहीं निगलता पानी तो
कहीं ज़मीनी सूखी। 

कहीं किसान पानी को ही देखता तो 
कहीं ज़मीनी पानी को खोजती।

कहीं सूखते पोखर तो 
कहीं विलुप्त होती नदियां।

कहीं ज़मीन सरक जाती तो 
कहीं बादल फट जाते। 

कहीं भूस्खलन हो जाता तो 
कहीं डूब घर जाते।

कहीं पानी की जगह आदमी ले लेता तो 
कभी आदमी के ऊपर पानी हो लेता।

कहीं प्रकृति संकट में तो 
कभी प्रकृति संकट को लाती।

कहीं आदमी हवा को लेता तो 
कभी हवा आदमी को ले लेती।

कहीं चक्रवात समुद्र में तो
कभी हवाएं घर उड़ा ले जाती।

कहीं आदमी जानवर काटते तो 
कभी जीवाणु आदमी खा जाते।

कहीं सरकारें आवारा होती तो 
कभी मीडिया अंधी हो जाती।

कहीं अत्याचार होता महिलाओं पर तो 
कभी बहरा समाज हो जाता।

कहीं सरकार विपक्ष को रोकती तो 
कभी विपक्ष से सरकार न रुकती।

कहीं महंगाई लोगों का जेब खा लेती तो 
कभी आदमी टमाटर ना खा पाता।

कहीं गौ-माता गौ-माता चिल्लाते तो
कभी धड़ल्ले से गौ मांस के निर्यात में अव्वल आते।

कहीं गंगा साफ न होती तो
कभी यमुना उफान पर आ जाती।

कहीं विधायिका अधिनियम बनाती तो
कभी सरकारी गुंडे खुद ही संसद हो जाते।

कहीं पत्रकार खत्म हो जाते तो 
कभी पत्रकारिता नजर नहीं आती।

कहीं देश को नेता खा जाते तो 
कभी नौकरशाह निकल लेते।

कभी दुनिया चांद पर पहुंच जाती तो
कहीं बिजली गांव न पहुंचती।

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