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थे क्या वे भी दिन 
जब आती धेनू
निज बच्चो के संग।
लह-लहाते खेत गेहूं के,
जिनकी बालियाँ करती 
कनक को भी फीका।
पपीहे का इंतजार वो 
मेंढक के टरटराने की
वो आवाजें।
वर्षा की बूंदो का
वह जल टकराव,
शिवालय की चौखटों को 
स्पर्श करती धाराएं।

बच्चों की उछल कूद वह 
गांव के उन पोखरों में।
नहरो के रुख को बदलना 
अपने खेतों की ओर।
बनारस के घाटों को 
सुशोभित करती अलकनंदा।
बहुत याद आती हैं 
वो बारिश से,
आंगन का भर जाना।

वो नदी का पानी 
अब गया है सुख।
वो मिट्टी का ढेला,
जो गीला था कभी,
आज सूखकर वह
फाड़ चुका है अपना गला।
आज अपने प्रेमी से
हो चुका है पृथक।
उस सूखी मिट्टी का प्रेमी 
'नीर' की है धारा।
कभी थे साथी वे एक दूसरे के,
आज तो काले पाप के हैं दिन।
काला बदबूदार पानी रौंदता,
उस सुगंधित मिट्टी को।
जिसका था प्रेम सदियों पुराना 
नीर के कण-कण से।

आज प्लास्टिक के टुकड़े 
जलने ही नहीं देते,
मत्स्य की जठराग्नि को। 
कभी जल ही जिनका जीवन था
आज वही है उनकी मौत।
गटरो के पानी को हम, 
सीधा करते खाली नदी मे।
गंगा मैली हो चुकी
पाप धोते-धोते,
किंतु प्रवृत्ति ही नहीं बदलती
मनुजों की
दूषित करना जल को।

जलवायु परिवर्तन की अती ने
भूखंडों को है डुबोया।
टूबालू के 12000 लोग हैं 
विस्थापन की आस लिए।
भूमिगत जल ने है,
अपना स्तर खो दिया।
हम मनुष्यों का अहंकार ही,
कुचलता दूसरी जनजातियों को।
प्राकृतिक संसाधनों के शोषण की
नहीं रह गई है कोई अती।

आखिर कब तक और चलेगा
हमारा अंधा और बहरापन।
जगत है बूंद-बूंद को तरसता
और चीखता पानी-पानी।
ए॰‍सी॰ के कमरों में सोने वाले
क्या जाने एक कुएं पर 
10 गाँवो के निर्भरता।
अनियंत्रित आबादी पर ये
सीमित संसाधन कब तक चलेंगे?
समझना होगा युवाओं को,
प्रकृति के दायित्वों को।
केवल लक्ष्य बना देने से,
कहां होती है लक्ष्य की पूर्ति?
हमें उठना होगा,
और उठाना होगा भार 
अपने कंधों पर।

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