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एक इच्छा जो जाती नहीं
वह है एक मकान की।
पीड़ा नहीं, वह जो दिखती,
पीड़ा वह, जो दिखाई नहीं जाती।
सबके घर बन जाते हैं,
हम बस पन्नियां बदलते हैं।
हजारों लोग रहते झुग्गियों में
और कुछ लोग मकान बदलते रहते
सुबह इस घर में, शाम उस घर में।
शहरों के दो टुकडे देखे,
एक ओर गगनचुंबी इमारतें दिखाती,
एक ओर जमीन में दफना झुग्गियां।
हमारी पन्नियां जब फट जाती हैं,
सिलते हैं हम धागों से।
चुने लगी जब छत हमारी,
पापा कहते देखो- अमृत की वर्षा होती।
हम उछल कूद के बर्तन लगाते
और बटोरते पानी।
तब तक नमकीन हो जाती,
आंखें पापा की।
धारावी की झुग्गियां देखो,
और साउथ मुंबई की आकृति।
जितनी ऊंची इमारतें,
झुग्गियां उतनी अंदर।
बम्बई हो दिल्ली या हो कलकत्ता
झुग्गियां होती हर जगह।
बेबसी होती एक तरह।
सबके लिए बरसात होती,
हमारे लिए अभिशाप होती।
दूसरों के घर के बाहर होती,
हमारे घर के अंदर होती।
बरसात का पानी अंदर आता,
बर्तन झट से तैरने लगते।
हम सब की एक ही चौकी होती।
बस देखते नाली के कीड़ों को
रेंगते हुए बर्तनो पर
अपने घर के अंदर,
कोसते अपने किस्म को,
गरीब पैदा होने पर।
अन्दर से एक आवाज आती।
फिर लगता है यह
कुछ संघर्षो सा।
संघर्ष कैसा ?
संघर्ष एक मकान का।
बैठे बैठे कल्पना करते,
हम भी एक मकान की
और करते इंतजार
बरसात के जाने का।
हम भी यह सोचा करते
कब तक चलेगा और
संघर्ष एक मकान का?