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युद्ध की है त्रासदी
होती नहीं है खत्म यहां,
मानव रहित होती धरित्री
जगत हो जाता निर्जन यहां।
कहने को तो मनुष्य है
मनु की संताने है कहलाते अपने को,
दूसरों के दुःख देख
खींच लेते हैं हम हाथों को।
क्यों फट नहीं जाता ह्रदय हमारा
देख दुःख दूसरों के,
हम भी तो मनुष्य हैं
कहीं तो पसीजता होगा हृदय
देख दुःख दूसरों के।
आज मैं लिखता हूं यह कविता
कल कोई और लिखेगा,
यह दुःख खत्म नहीं होता
यह बारंबार कहेगा।
धर्म के नाम पर बांट देते हैं हम
और कितना बाटेंगे,
रोटी कपड़ा और मकान है मूलभूत
हम यह कितनी और बार चीखेंगे।
गर नदी, पहाड़, झरना, जमीन
है उसे परमात्मा की दिन,
गर मनुष्य, इंसान, ह्यूमन, आदम है एक
तो क्यों सर्वोच्चता पहुंचने के रास्ते की।
रंग रूप कद-काठी
का है क्यों इतना भेद इंसानों में,
ऊंच-नीच अमीरी-गरीबी
का है बोल बाला क्यों इंसानों में।
हिंदू और मुस्लिम कर
बांट दिए हमने इंसानो को,
रंगों को भी है बांट दिया
लाल हिंदू और हरा को मुसलमान को।
'ह' को किया 'म' से अलग
किंतु 'ह'और 'म' का वजूद है,
'ह' और 'म' का 'हम' हो जाने में।
गलत राजनीति का खेल
अभी और कितना खींचेगा,
गरीब और मध्यम वर्ग
अभी और कितना पिसेगा।
इसराइल और फिलिस्तीन
का युद्ध हो, या
हो युद्ध रूस और यूक्रेन का
आमजन होते केवल प्राप्त मृत्यु को।
धर्म और जमीन के लिए
होंगे कितने और युद्ध,
मानवता का भी एक धर्म है
इसकी स्थापना को क्यों नहीं होते युद्ध।