आज चलो हम बात करते उस
दिव्य प्रेमकथा की, जिसे हम जानते
सिया और राम के नाम से।
राम पुरुषोत्तम अवश्य
किंतु उसके पूर्व वह हैं स्वामी किसी के ह्रदय के,
आतें हैं वह कानन में
पिता के वचनों की रखने मान।
साथ हैं साहसी व अभिराम सी संगिनी
सीता और अनुज लक्ष्मण।
बीत जाते वर्ष तेरा यूं ही संग क्रूर वन में साथ,
क्योंकि संग थे वे वृक्ष और छाया के समान।
सुमंद जानकी और पक्षियों के कूजन व,
अनुज लक्ष्मण के साथ से देवभूमि हो जाता वह वन।
दुष्ट रावण का आदेश का पा,
मरीज ने धरा स्वर्ण मृग का वेश;
ले गया महामूर्ख दशानन अपनी मृत्यु स्वयं
क्योंकि वह भूल गया स्त्री सृजन का ही नहीं
विध्वंस का भी रुप है।
राम है जब आते पर्णकुटी के निकट
और जब न पाते वो अपनी प्राण प्रिय सीते,
सहस्त्र ब्रह्मास्त्र का चल जाने
के समान होती पीड़ा।
वह राम जो सीता बिन न जिए एक क्षण भी,
हो गई वह विलुप्त कुछ निष्ठुर क्षण में ही।
विरह की वेदना से निकलते रक्त से
कर दिया राम ने धरा की भूमि को आर्द्र।
है जीते वह करुण के स्थायीभाव में,
आकाश पाताल करते वह एक
पूछते वह पता अपनी वैदेही
का अम्बर, तरू और पवन से।
निरुत्तर होने पर हो जाता उनका हृदय विकल।