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आप जब भी किसी भी देश के, किसी भी राज्य के, किसी भी शहर के, किसी भी विद्यालय या महाविद्यालय के, किसी भी छात्र से पुछेंगे की संसार में अमन या चैन लाना हो तो क्या किया जाये? तो ९०% विद्यार्थी यही कहेंगे की धर्म को निकाल दिया जाए मगर क्या धर्म को निकालने से संसार में शांति आ जायेंगी? क्या धर्म को निकालने से मनुष्य फिर चैन से जी पायेगा?

चलिए कल्पना करते है कि हम उस विश्व में जी रहे हैं, जहाँ कोई धर्म नहीं, कोई भाषा नहीं, कोई रंग नहीं मनुष्य एक दूसरे को याद करने के लिए संख्या का सहारा लेते है तो क्या युद्ध नहीं होंगे, तो क्या लड़ाई नहीं होंगी, क्रोध, द्वेष जैसे कई वेदनाएं खत्म हो जायेंगी?

अफसोस! मैं नहीं मानता! मनुष्य को इस संसार में जन्म लिये करीब २,००,००० साल हो चुके है इस दौरान उसने कई बदलाव देखे है; सतह विवर्तनिकी, पहाडों का दरिया से निकलना, बर्फ का पिघलना जैसे बडे बदलाव भी देखे है, मगर जो बदलाव नहीं देखा वह है मानव की संवेदना मानव आज भी ये जंग हारा है जहाँ उसे अपनी वेदना पर नियंत्रण करना होता है।

हाँ! तो अगर इस संसार में बस संख्या होती तो क्या मानव संख्या के लिये युद्ध करता? जी हाँ! सम संख्या वाले विषम से और अभाज्य वाले भाज्य से युद्ध करते, क्योंकि मानव बहाने ढूँढ़ता है लड़ने के, अगर हम संख्या निकाल दे तो मनुष्य अपने बालो के लिये लडेगा लम्बे बाल वाले छोटे बाल वाले से सीधे बाल वाले घुँघराले बाल वाले से; अगर बाल निकाल दे तो खाल, जिसकी चमडी कोमल वो सख्त चमडी वाले से, या फिर नीली आंख वाले काली आंख वाले से; या लम्बे नाखून रखने वाले छोटे रखने वाले से और न जाने क्या! क्या।

हर कोई खुद को उत्तम सिद्ध करने के लिये खुद को सही साबित करने के लिये लडेगा। असल में यह धार्मिक युद्ध भी कुछ इसी प्रकार कि है। मनुष्य भगवान को सही सिद्ध करने के लिये नहीं मगर खुद को सही सिद्ध करने के लिये बरसों से लड रहा है मगर आज तक सफल नहीं हुआ, होगा भी कैसे, जो किसी के लिये ६ (6) है तो किसी के लिये ९(9) न इस तरफ न उस तरफ दोनो में से कोई एक भी नहीं हार मान रहा। माने भी क्यों! दोनो सच ही तो कह रहे है। जो देख रहे है जो बरसो से समझाया गया हैं वहीं तो बोल रहे है। न ६(6) वाला ९ (9) कि तरफ न ९ (9) वाला ६ (6) कि तरफ आ रहा हैं। कोई नया अनुभव नहीं करना चाह रहा; इस डर से की कहीं उनकी बरसो से चली आ रही जंग खत्म न हो जाये कहीं उनके विचारो में परिवर्तन आ जाने से उनकी गलतफहमी दूर न हो जाये।

ये सब तो खैर पहले कि बात थी, फिलहाल तो मनुष्य शायद इसलिये भी लड रहा है क्योंकि उस के कंधों पर बोझ है उन असंख्य लाशों का जो इस गलतफहमी की शिकार हुई है। जिन्होंने अपनी जान इस भरोसे के साथ गंवाई है की उनका बदला लिया जायेगा उनसे जो उनके मृत्यु के वक्त जन्में भी नहीं थे। तो सवाल ये है कि क्या ये जंग कभी नहीं रुक सकती। इसे रोकने का क्या कोई उपाय नहीं या यूं कहे तो बेहतर होगा की क्या कोई उपाय खोजना चाहता ही नहीं, क्योंकि जैसा कि यूनान के दार्शनिक सुकरात ने अपनी अंतिम रात के वक्त कहा था की मृत्यु के अनुपस्थिति में ही जीवन उपस्थित है रात के अनुपस्थिति में जैसे दिन उपस्थित है| बिलकुल वैसे ही प्रेम की अनुपस्थिति में द्वेष उपस्थित है। विनम्रता कि अनुपस्थिति में क्रोध उपस्थित है।

मनोवैज्ञानिक का मानना है की स्वीकृति से ही मनुष्य संवेदनाओं पर नियंत्रण पाता है यानी अगर हमें नियम भंग करना हो तो ये जानना अति-आवश्यक है की पहले ये जान ले नियम है क्या। यानी जब किसी राग में आप विवादित स्वर ले उस कि मधुरता बढाने के लिए तो पहले ये जान ले उसमें विवादित स्वर है क्या। आप जब किसी के प्रति द्वेष या क्रोध अनुभव करें, तो सबसे पहले स्वीकार करें फिर अपने-आप से प्रश्न करें कि आप क्यों क्रोधित हो रहे है? क्या इस समस्या का हल क्रोध के सिवाय कोई नहीं, अगर नहीं तो क्या क्रोध से समाधान निकल आएगा क्या वह समाधान लम्बे समय तक साथ दे पायेगा, अगर नहीं तो फिर से क्या इसका कोई दूसरा हल है? क्या उससे कोई निवारण निकलेगा? क्या वह लम्बे समय तक साथ देगा? मेरा मानना है प्रश्नों कि संख्या अधिक बेहतर है मृत्यु कि संख्या से। 

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