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आइए आज आपको एक किस्सा सुनाती हूं,
या यूं कहूं, सच्चाई का आईना दिखाती हूं.
सन 2000 की बात है, परिवार तोड़ने की बात चली,
एक घर को दो टुकड़ों में बांटने की पहल हुई.
सरकार ने मंज़ूरी दे दी, जिसने जैसा सोचा था
बंटवारे की मिठाई देखो बंट गई।
हो गया बिहार अलग और झारखंड अलग
दलील दी गई, आदिवासियों को मिलेगा उनका हक
होगी उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा पूरी चकाचक
इसमें नहीं है कहीं कोई शक।
आज 24 वर्षों के बाद, सच्चाई को आईने में देखा
क्या बताएं, क्या कुछ नहीं हमने सीखा....
24 साल के राजतंत्र में, 12 बार मुखिया बदले गए हैं
ये राज्य चलाने वाले हैं, या बिन पेंदी के लोटे बने बैठे हैं।
शिक्षा व्यवस्था को तो हालत है ऐसी
छात्र बेचारे दूसरे राज्य जाने को मजबूर हुए पड़े हैं।
स्वास्थ्य व्यवस्था की भी सुन लीजिए हालत
जर्जर स्थिति में गिर रही यहां की हर एक छत
अरे क्या हुआ फिर भी, इन्हे नहीं है कोई दिक्कत
घिन्न आती है ऐसी व्यवस्था से
क्योंकि घटिया है इनकी नीयत।
क्या सपना दिखाया था यहां के आदिवासियों को
रोटी, कपड़ा मकान न सही, जीने की वजह तो दे दो
और न सही तो अपने होने की उम्मीद तो मत खोने दो
चल पड़े हैं धर्म परिवर्तन का आडम्बर लिए
आदिवासी समाज को जैसे ख़त्म करने की कसम ही खा लिए
बड़े बड़े वायदे करने वाले, आज कुर्सी के लिए लड़ रहे
कुर्सी पर बैठ कर भी न जाने ये क्या उखाड़ लिए ?
लोकतंत्र का डंका बजने वाले ये राजनेता
न जाने क्यों कुर्सी देख भूल जाते हैं नैतिकता ?
देश या राज्य को चलाने की ज़िम्मेदारी ली है
जनता की सेवा करने की कसम खाई है,
फिर क्यों अपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं,
बनी बनाई व्यवस्था को भी तोड़ने लग जाते हैं?
देश को आज़ादी दिलाने के लिए एक होना पड़ा था सबको
क्या ऊंच क्या नीच, सबने एक सुर में भारतीय कहा था खुद को
आज वही भारत देखो फिर से बँट रहा है
अपनों के ही करतूतों की वजह से, समाज अलग हो रहा है.
देश का विकास एकता से ही संभव होगा
पक्ष- विपक्ष की दलीलों से सिर्फ़ देश का नुकसान होगा.
अब भी वक़्त है, बचा लीजिये अपने गणतंत्र को
विकास ऐसा करते हैं जिससे असल में भारत स्वतंत्र हो.